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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
निन्दा न प्रशंसा करे, राग ही न द्वेष धरे,
लेन ही न देन करे, कछु ना पसारो है । सुन्दर कहत ताकी अगम अगाध गति,
ऐसो कोई साधु हो तो प्रभु को पियारो है ।
वास्तव में सच्चे सन्त सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान, मित्र शत्रु और जीवन-मरण आदि सभी में पूर्ण समभाव धारण करते हैं । वे निरन्तर अपनी आत्मा में रमण करते हैं तथा जल में रहते हुए कमल की तरह जगत से निर्लिप्त रहते हैं ।
ऐसी वृत्ति वाले मुनि भला 'आक्रोश परिषह' पर विजय प्राप्त क्यों नहीं कर सकेंगे ? अवश्य करेंगे। वे ही भगवान के द्वारा दिये गये आदेश का अक्षरशः पालन करते हुए संवर की आराधना कर सकेंगे तथा अपने सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करके जन्ममरण के दुःखों से छुटकारा पाएँगे ।
बन्धुओ ! आशा है आपने 'आक्रोश परिषह' के विषय में भली-भाँति समझ लिया होगा और अब हम अगले परिषह के विषय में आगे विचार करेंगे ।
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