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आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्
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सकी, किन्तु आप तो उस समय सारे जहान के मालिक अल्लाह की इबादत कर रहे थे, फिर आपने भला किस प्रकार मुझे आपकी 'जाये नमाज' कुचलते हुए और इधर से जाते हुए देख लिया ?'
स्त्री की बात सुनकर बादशाह बहत मिन्दा हुआ और उसकी समझ में आ गया कि अल्लाह की इबादत तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि मन इधर-उधर भटकता रहे। जिस प्रकार दो घोड़ों की सवारी एक साथ नहीं हो सकती, उसी प्रकार मन संसार में रहता हुआ भगवान को स्मरण नहीं कर सकता। सारे संसार से बेखबर होकर ही वह उनका चिन्तन कर सकता है ।
बन्धुओ, मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि सच्चे साधक को प्रथम तो अपना मन विकारों की गन्दगी से शुद्ध करना चाहिए और उसके पश्चात् चंचलता रहित होकर आत्म-चिन्तन में लीन होना चाहिए। जब तक साधक के मन में विकार रहेंगे तब तक वह अपनी साधना को फलप्रद नहीं बना सकेगा । उदाहरणस्वरूप किसी ने साधक को तनिक कटु या मानभंग करने वाले अपमानजनक शब्द कह दिये और वह प्रत्युत्तर में क्रोध कर बैठा तो फिर साधना कैसे करेगा ? इसलिये निन्दा, अपमान एवं भर्त्सनापूर्ण शब्दों से उसे कभी विचलित नहीं होना चाहिए तथा मौन भाव से उन शब्दों को सहन करके 'आक्रोश परिषह' पर विजय पानी चाहिए।
ऐसा करने वाला साधक अथवा मुनि ही अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मुनिवृत्ति सहज वस्तु नहीं है, यह फूलों का नहीं, अपितु काँटों का मार्ग है तथा
"जवा लोहमया चेव, चावेयन्वा सुदुक्करं।" अर्थात् मोम के दाँतों से लोहे के चने चबाने के समान कठिन है ।
सच्चे सन्त क्रोध, मान, माया एवं लोभ के विष वृक्षों को क्रमशः क्षमा, मृदुता, सरलता एवं निस्पृहता के तीक्ष्ण शस्त्रों से जड़ से काट देते हैं। वे आत्मिक कल्मष को धो डालने के लिये संवर की आराधना करते हैं।
कवि सुन्दरदास जी ने अपने एक कवित्त में इस विषय को बड़े सरल ढंग से कहा हैकाम ही न क्रोध जाके, लोभ ही न मोह जाके,
मद ही न मत्सर जाके कोउ न विकारो है। दुःख ही न सुख माने, नाहीं हानि-लाभ जाने,
हरष न शोक आने देह ही तें न्यारो है।'
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