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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
राजा उसके पास कुछ समय बैठा और अचानक ही उसने पूछ लिया -"महाराज ! आपमें और मुझमें क्या अन्तर है ?"
संत ने कहा- "इसका उत्तर कुछ समय पश्चात् दूंगा।" इस पर राजा ने उनसे आग्रह किया-"आप मेरे नगर में चलिये और जब आपकी इच्छा हो मेरे प्रश्न का उत्तर दे दीजियेगा।" ___ संत उसी क्षण उठकर खड़े हो गये और बोले
"चलो ! ऐसा ही सही ।" राजा उनके इस प्रकार निमंत्रण देते ही उठ खड़े होने पर तनिक चकित हुआ पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने साथ ले चला।
- राजा और संत दोनों ने नगर में प्रवेश किया तथा राजमहल में पहुँच गये । राजा ने राजमहल का एक सुन्दर एवं सुसज्जित भवन स्वामी जी के लिए खुलवा दिया, जिसमें सुख-सुविधा के समस्त साधन मौजूद थे । बैठने के लिए बढ़िया कुर्सियाँ
और सोफे तथा सोने के लिए तकिये और मसहरी वाला नर्म गद्देदार पलंग भी उसमें मौजूद था । राजा ने पूछा
"महाराज ! यह भवन ठीक है आपके लिए ?"
"बहुत बढ़िया ।” कहते हुए संत आराम से पलंग पर उसी प्रकार सो गया, जिस प्रकार वह जंगल में वृक्ष के नीचे कंकरीली जमीन पर लेटता था।
राजमहल में रहते हुए स्वामी जी महाराज को कई महीने हो गये । महल की भोजनशाला से उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ उनके खाने के लिए आ जाते थे और वह आराम से उन्हें ग्रहण करके दिन-रात मस्ती से व्यतीत करते रहे। उन्हें किसी बात से परहेज नहीं था। राजा के कहते ही वे सुन्दर बगीचों की सैर के लिए निकल जाते और उसके कहते ही संगीत एवं नृत्य की मजलिस में भी शामिल हो जाते ।
राजा संत के इस व्यवहार से बड़ा चकित था, पर कई मास व्यतीत हो जाने पर भी जब संत ने उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो एक दिन उसने पुनः अपना प्रश्न दोहराया कि - "आपमें और मुझमें क्या अन्तर है महाराज ! देखिये आप भी आनन्द से राजमहल में रह रहे हैं और मैं भी इसी प्रकार रहता हूँ।"
संत राजा के प्रश्न पर हँस पड़े और पलंग से उठकर खड़े होते हुए बोले"राजन् ! आज मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा, पर राजमहल से बाहर चलो।" ।
राजा संत के साथ हो लिया और दोनों राजमहल से ही नहीं वरन् नगर से भी बाहर आ गये । अब राजा ने अपने प्रश्न का उत्तर चाहा, किन्तु संत ने कहा"जल्दी क्या है ? कुछ दूर और चलो !” इस प्रकार कुछ दूर और, कुछ दूर और, कहते हुए संत राजा को नगर से बहुत दूर वन में साथ ले गये ।
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