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________________ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् १०३ इस गाथा में बताया गया है कि वंदनीय पुरुष कोन होता है ? भगवान का कथन है कि आशा अथवा किसी स्वार्थ के वशीभूत होने के कारण तो व्यक्ति किसी के लोहे के काँटे के समान तीक्ष्ण चुभने वाले शब्द सहन कर लेता है और इसमें कोई बड़ी बात नहीं है । पर जो व्यक्ति बिना किसी आशा, स्वार्थ या गरज के भी ऐसे लोह-कंटक के समान शब्दों को सुनकर सहन करता है, वही पूज्य होता है । वस्तुतः गरज होने पर व्यक्ति गधे को बाप बनाता है तथा दूध की आशा से दुधारू गाय की लातें भी खा लेता है, किन्तु जब स्वार्थ की भावना नहीं होती तो वही व्यक्ति तनिक-सा निमित्त मिलते ही साँप के फन के समान उठकर मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाता है । इन बातों से स्पष्ट है कि मनुष्य आशा का दास होता है, और जब तक वह इससे परे नहीं जाता तब तक किसी के सम्मान का पात्र नहीं बन सकता । मराठी भाषा में संत तुकाराम जी कहते हैं " आशा, तृष्णा, माया, अपमानाचे बीज, नाशियेल्या पूज्य होईजे ते । अधीरासी नाहीं चालो जाता मान, दुर्लभ, दर्शन, धीर त्याचे ।" यह सिद्धान्त की वाणी है और भगवान की फरमाई हुई गाथा का सार बताती है । इसमें कहा गया है - आशा, तृष्णा और माया ये अपमान रूपी वृक्ष के बी हैं । जब तक ये नष्ट नहीं हो जाएँगे यानी व्यक्ति इनको त्याग नहीं देगा, तब तक वह पूज्य नहीं बन सकेगा। आगे कहा है - जिनके हृदय में धैर्य एवं संतोष नहीं है उन्हें कहीं भी मान नहीं मिल सकता, पर जो इन गुणों को दृढ़ता से धारण किये हुए हैं, ऐसे महापुरुषों के दर्शन वस्तुतः दुर्लभ हैं । संस्कृत के एक श्लोक में भी इस विषय को बड़ी सुन्दर रीति से समझाया गया है । कहा है यतेलोकः ॥ आशाया ये दासाः, ते दासाः सन्ति सर्व लोकस्य । आशा येषां दासी, तेषां दासा अर्थात् जो आशा के दास हैं वे दुनिया के दास हैं और आशा जिनकी दासी है, उनके लिए सारा संसार दास है । राजा और फकीर में अन्तर एक बार एक राजा घूमते-घामते किसी संत के पास पहुँच गया । संत एक वृक्ष के नीचे आनन्द से बैठे थे और समीप बैठे हुए अपने भक्तों को उपदेश दे रहे थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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