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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
कह उठे- 'मेरे जप, तप और करनी का अगर फल हो तो यह दुरात्मा जलकर भस्म हो जाय ।"
यद्यपि वे अपने उस लघु शिष्य को बोध दे चुके थे और उसके कारण वह शिष्य भी जन्म-मरण से मुक्त हो गया था, किन्तु उसके पीले जाने के समय स्कंदक आचार्य अपने आप पर संयम नहीं रख सके, चूक गये अतः अपनी करनी पर आप ही पानी फेरकर जन्म-मरण के चक्कर में फंस गये। थोड़ी सी चूक का परिणाम उन्हें बड़ा भारी पड़ गया
चार कोस का मांडला, वे वाणी का झोरा । भारी कर्मा जीवड़ा, उठेहि रह गया कोरा ॥
चार कोस पर समवशरण में भगवान तीर्थंकर उपदेश दे रहे थे, किन्तु कर्मोदय से वे उसका लाभ नहीं उठा सके और कोरे रह गये ।
इसी प्रकार महाशतक श्रावक पौषधशाला में बैठे थे । वहाँ उनकी पत्नी रेवती आई और अपने हाव-भावों के द्वारा उन्हें चलायमान करने का प्रयत्न करने लगी। परन्तु श्रावक व्रतधारी थे अतः डिगे नहीं किन्तु जब रेवती ने बहुत परेशान किया तो उन्हें क्रोध आ गया और उनके मुंह से निकल गया – “सात दिन के अन्दर-अन्दर तू समाप्त हो जाएगी।"
भगवान सर्वदर्शी थे, उन्होंने महाशतक को संदेश भेजा कि- 'पौषधशाला में बैठकर तुमने ऐसे शब्द मुँह से निकाले हैं, अतः इनके लिए प्रायश्चित्त करो।'
यद्यपि महाशतक ने बिना वजह ऐसे शब्द नहीं कहे थे, रेवती के बहुत परेशान करने पर ही कह दिये थे। फिर भी उन्हें प्रायश्चित्त लेना पड़ा। इसीलिये साधुसाध्वी, श्रावक एवं श्राविका सभी को चेतावनी दी जाती है कि मन पर पूर्ण संयम रखो तथा कारण मिलने पर भी, यानी किसी के दुर्व्यवहार करने अथवा आक्रोशपूर्ण शब्द कहने पर भी उसका प्रत्युत्तर मत दो, अपितु उस सब को समभाव से सहन करो तभी संवर का मार्ग मिलेगा अन्यथा आश्रव का रास्ता तो सामने है ही। भगवान का उपदेश है
सक्का सहेउं आसाइ कंटया,
अओमया उच्छहया नरेणं । अणासए जो उ सहिज्ज कंटए, वईमए कन्न सरे स पुज्जो ॥
-दशवकालिक सूत्र, अ० ६ गा०६
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