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आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् लिए निकल गये । घूमते-घामते वे अपने बहनोई राजा पुरंदर के नगर की ओर आए उस राज्य का प्रधान स्कंदक आचार्य से दुश्मनी रखता था, क्योंकि उन्होंने गृहस्थावस्था में उसे वाद-विवाद में हराया था । संस्कृत में कहा गया है--
वादे-वादे जायते तत्वबोधः
वादे-वादे जायते बैरबोधः ।
अर्थात् वाद-विवाद से तत्वों का ज्ञान होता है और कभी-कभी वाद-विवाद से वैर भी बंध जाता है।
तो वाद-विवाद के कारण प्रधान स्कंदक आचार्य का शत्रु बन गया था। और अब उसने स्वर्णसंयोग समझकर नगर से बाहर जहाँ आचार्य अपने पाँच सौ शिष्यों सहित ठहरने वाले थे, वहाँ पाँच सौ तीक्ष्ण हथियार जमीन में गड़वा दिये
और जब आचार्य अपने शिष्यवृन्द सहित वहाँ ठहर गए तो राजा से कहा ये मुनिरूप में आपके राज्य पर आक्रमण करके आपसे राज्य छीनने आए हैं।
राजा ने मन्त्री से इस बात का प्रमाण माँगा और मन्त्री ने राजा को साथ लेकर बाहर बगीचे में गड़े हुए हथियार निकालकर बता दिये । परिणाम यह हुआ कि राजा ने सभी मुनियों को मौत के घाट उतारने की आज्ञा दे दी और मन्त्री को उसका पालन करने का आदेश दिया।
मन्त्री यह तो चाहता ही था । वह तुरन्त घानी ले आया और सभी संतों को उसमें पीलने के लिए उद्यत हो गया। उस समय स्कंदक आचार्य ने सिर्फ यह कहा
"भाई ! मैं अपने शिष्यों को अपने नेत्रों के सामने पानी में पीले जाते नहीं देख सकूँगा, अतः तुम सबसे पहले मुझे ही इसमें डालकर पील दो।" किन्तु दुष्ट मन्त्री इस बात को भी कैसे मानता ? वह तो स्कंदक आचार्य को अधिकाधिक कष्ट पहुँचाना चाहता था। अतः उसने यह बात भी नहीं मानी और एक-एक करके शिष्यों को पानी में डाल चला।
स्कंदक आचार्य ने इस पर भी दिल कड़ा किया और पीले जाने वाले अपने प्रत्येक शिष्य को बोध देने लगे। क्रमशः चारसौ निन्यानवे शिष्य उनसे प्रतिबोधित होकर आत्म-कल्याण कर गए। पर जब एक सबसे छोटा और अन्तिम शिष्य बचा तो स्कंदक आचार्य अपना दिल कड़ा नहीं रख सके और मन्त्री से बोले-"अब इस मेरे छोटे शिष्य से पहले तो मुझे पील डालो । मैं इसे मरते नहीं देख सकूँगा।"
मंत्री तब भी नहीं माना और उस लघु शिष्य को घानी की ओर ले चला। वह शिष्य स्कंदक आचार्य को बहुत प्यारा था अतः अब उन्हें क्रोध आ गया और वे
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