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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
संयोगवश उसका पैर काड़े में अटक गया और उसके हाथ की कटार उसी के पेट में घुस गई।
इस उदाहरण से हमें ज्ञात हो जाता है कि जो बुरा करता है उसका नतीजा उसे स्वयं ही मिल जाता है । श्रीपाल जी ने धवल सेठ के द्वारा मारे जाने के कई प्रयत्न करने पर भी उसका बदला नहीं लिया अत: वे कर्मों के बन्धन से बचे रहे। किन्तु धवल सेठ ने श्रीपाल को मार डालना चाहा था अतः उसे अपने जघन्य कर्मों का फल कुछ ही समय में मरकर भोगना पड़ा । यानी कुकृत्यों का फल उसे स्वयं ही मिल गया। इसे चाहे दैव, नसीब या कर्म कुछ भी कहा जाये, पर वे पापों का दण्ड अवश्य देते हैं, यह निश्चय जानना चाहिए । कंस ने कृष्ण का बुरा सोचा और रावण ने राम का । परिणाम यह हुआ कि दोनों ही समाप्त हुए।
एक कवि ने भी यही कहा हैं
जो और के मुंह में शक्कर दे, फिर भी वह शक्कर पाता है, जो और किसी को टक्कर दे, फिर भी वह टक्कर पाता है । जो और किसी को चक्कर दे, फिर भी वह चक्कर खाता है,
जो जैसा जिसके साथ करे, फिर वह भी वैसा पाता है।
पद्य में सीधे-साधे वाक्य हैं पर शिक्षाप्रद बहुत हैं । आप किसी का आदरसत्कार करते हैं तो दस वर्ष बाद भी अगर वह मिलता है तो आपका आदर-सम्मान किये बिना नहीं रहता । और अगर किसी को आपने कटु, निंदात्मक अथवा व्यंगात्मक शब्द कहे तो बहुत वर्ष पश्चात् मिलने पर भी वह व्यक्ति आपका अपमान करने का प्रयत्न करता है । इसीलिए विद्वानों ने कहा है
___ "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।” जो व्यवहार आपको क्षम्य नहीं है, वह दूसरों के साथ भी मत करो।
जो भव्य प्राणी ऐसा करता है यानी बुराई का बदला भलाई से देता है वही महान् बनता है, किन्तु इसके विपरीत जो चूक जाता है वह अपने लिए अनिष्ट का उपार्जन कर ही लेता है।
स्कंदक आचार्य के पांच सौ शिष्य थे। एक बार उन्होंने श्री मुनिसुव्रतस्वामी से देशाटन करके प्रचार करने की अनुमति मांगी। भगवान ने कहा- "तुम्हारा विहार तुम्हारे लिए दुष्कर है पर औरों के लिए कल्याणकर बनेगा।" स्कंदक आचार्य ने उत्तर दिया-"भगवन् ! दूसरों के कल्याण के लिए अगर मेरा नुकसान हो तो भी कोई बात नहीं है अत: मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए।"
इस प्रकार वे भगवान से अनुमति लेकर अपने सभी शिष्यों सहित भ्रमण के
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