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________________ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् तो बन्धुओ, मगवान ने इसी लिए साधु को किसी के भी द्वारा कटु, निन्दनीय एवं भर्त्सनायुक्त शब्द कहने पर भी मौन रहकर समता से उन्हें सहन करने का आदेश दिया है । वाद-विवाद या कलह को समाप्त करने के लिए मौन महौषधि है । साथ ही मौन आत्म-साधना के लिए सबसे बड़ा सहायक भी है । साधक जब वाद-विवाद, में अथवा औरों के कटु शब्दों का प्रत्युत्तर देने में समय बर्वाद करता है तो अपने ज्ञान ध्यान एवं चिंतन में पूरा समय नहीं दे पाता । किन्तु इसके विपरीत जब वह इन बातों में समय नहीं बिगाड़ता है तो मौन रहकर निर्बाध रूप से साधना कर सकता है। करेगा सो भरेगा मैंने अभी बताया था कि जो व्यक्ति बुरा कार्य या पाप-कार्य करता है उसका फल तो वह स्वयं ही भुगत लेता है, फिर हम भी उसमें भाग लेकर कर्मबन्धन क्यों करें? आप कहेंगे कि हम उसमें स्वयं भाग लेने नहीं जाते पर अगर कोई हमें कटुवचन कहता है और हमारी निन्दा करता है तो उसका प्रत्युत्तर भी न दें क्या ? क्या वह भी पाप है ? मेरे भाइयो ! यह ठीक है कि आप पहल नहीं करते और आगे होकर किसी को दुर्वचन नहीं कहते, किन्तु किसी और के दुष्टतापूर्ण वचन कहने पर जब प्रत्युत्तर में वैसे ही शब्द कहते हैं तो फिर आप भी उसके समान तो हो ही जाएँगे। अन्तर केवल कुछ ही क्षणों का रहेगा । आपके सामने वाला व्यक्ति कुछ क्षण पहले बोलेगा और आप कुछ क्षणों के बाद में । बस इतना ही फर्क आप दोनों में होगा। इसीलिए भगवान का आदेश बताते हुए मैं कहता हूँ कि अगर आपको कर्मों के बन्धन से बचना है तो किसी और के आक्रोशपूर्ण वचनों को सुनकर भी आप उनका उत्तर न दें तथा मौनभाव से उन्हें सहन करें। इससे दो लाभ होंगे। प्रथम तो कटु-वचनों को सम-भाव से सहन कर लेने के कारण आपके बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होगी, दूसरे नये कर्म नहीं बंधेगे। इसके अलावा जो व्यक्ति आपको दुर्वचन कहेगा, वह तो उसका फल स्वयं ही भोग लेगा। जो जहर खायेगा उसे लहर तो आएगी ही। श्रीपाल चरित्र में धवल सेठ का वर्णन आता है। धवल सेठ ने श्रीपाल को भारी कष्ट पहुँचाया। उन्हें समुद्र में फेंककर मारने का प्रयत्न भी किया किन्तु अपने पुण्यों के उदय से वे बच गये। राजकुमार श्रीपाल ने इस पर भी धवल सेठ का अनिष्ट नहीं चाहा । उसने जकात नहीं भरी और पकड़ा गया तो श्रीपाल ने अपना उपकारी रिश्तेदार बताकर उसे छ डा दिया। पर दुष्ट अपनी दुष्टता से बाज नहीं आते । यद्यपि श्रीपाल ने धवल सेठ को बचाया किन्तु फिर भी वह उन्हें मारने के लिए रात्रि को कटार लेकर जाने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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