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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग पुरुषों के अन्याय, अत्याचार या क्रूरता को भी पृथ्वी के समान सहन करते हुए अपने कोमल स्वभाव का त्याग न करें तथा जिह्वा से कभी कटु शब्दों का उच्चारण न करते हुए अपनी श्रेष्ठता को आदर्श के रूप में जगत के समक्ष रखें। तो बन्धुओ, प्रसंगवश मैंने एक कवि के द्वारा बहनों के लिए दी गई सीख को आपके सामने रख दिया है पर हमारा मूल विषय 'आक्रोश परिषह' को लेकर चल रहा है। 'आक्रोश परिषह' बारहवां परिषह है और इस परिषह को सहन करने के लिए भगवान ने साध को आदेश दिया है। उन्होंने कहा है ~~ "भले ही कोई भी पुरुष साधु की निन्दा करे, किन्तु साधु प्रत्युत्तर में कभी क्रोध न करे । क्योंकि निन्दा करना मूों का स्वभाव होता है और वे ही इस प्रकार के जघन्य कार्य किया करते हैं। किन्तु साध ज्ञानी होता है और फिर भी अगर वह मूों के द्वारा की गई निन्दा से क्रोध में आकर उन्हें बुरा-भला कहे तो फिर उन मूों में और उसमें क्या अन्तर हो सकता है ? कुछ भी नहीं, अर्थात् वह भी उन निन्दा करने वाले अज्ञानियों की या मूों की श्रेणी में आ जाएगा। अतएव साधु का कर्तव्य है कि वह कभी भी क्रोध के आवेश में न आए, उलटे अपने को कोसने वाले, निन्दा करने वाले या कटुवचन कहने वाले व्यक्ति को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हुए समभाव में विचरण करे । वह यही विचार करे- “यदि मुझमें सत्य ही यह दोष है तब तो यह व्यक्ति उचित कह रहा है, फिर मैं इस पर क्रोध क्यों करूँ और अगर यह असत्य कहता है तो मेरी निन्दा करके यह अपने कृतकों का फल स्वयं ही भोगेगा और इसलिये मैं व्यर्थ ही इस पर क्रोध करके अपनी आत्मा को दोषी क्यों बनाऊँ ?" इसी प्रकार प्रत्येक साधु और साधक को अपनी निन्दा और प्रशंसा से उपरत रहकर अपने साधना-पथ पर बढ़ना चाहिए। ऐसा करने वाला साधक ही सच्चा ज्ञानी कहला सकता है। 'श्री आचारांग सूत्र' में कहा भी है उवेह एणं बहिया य लोगं । से सव्व लोगम्मि जे केइ विष्णू ॥ अर्थात-जो कोई अपने विरोधियों के प्रति भी उपेक्षा अथवा तटस्थता का भाव रखता है, वह सम्पूर्ण विश्व के विद्वानों में अग्रणी विद्वान है। वस्तुतः वही सच्चा साधक है जो पूर्ण समभाव का आराधन करता है और किसी भी स्थिति में अपनी आत्मा के स्वभाव को नहीं छोड़ता तथा क्रोध को अपने अन्दर स्थान नहीं देता। जो भव्य प्राणी सच्चे मायनों में संत कहलाते हैं और 'आक्रोशपरिषह' को पूर्ण समता से सहन करते हैं वे ही अपने मानव जन्म को सार्थक करते हुए आत्मा का कल्याण करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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