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आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्
धर्मप्रेमी बन्धुओ ! माताओ एवं बहनो !
संवर के सत्तावन भेदो में से पांच समिति, तीन गुप्ति और ग्यारह परिषहों का विवेचन किया जा चुका है। कल मैंने बारहवें 'आक्रोश परिषह' के विषय में कुछ कहा था और आज भी उसी को लेकर कुछ कहने जा रहा हूँ। मराठी भाषा में एक आर्या है, जिसमें लिखा है
दिघले दुःख परानें, उसणे फेडं नयेचि सोसावे,
शिक्षा देव तयाला, करील म्हणूनि उगीच बसावे । कितना सुन्दर पाठ है ? कहते हैं, अगर कोई व्यक्ति तुम्हें दुःख दे तो भी बदले में तुम उसे दुःख मत दो। किसी से पाँच रुपये कर्ज लेने पर तो उन्हें चुकाना चाहिए पर मिले हुए दुःख को वापिस करने का तो कदापि विचार नहीं करना चाहिए । व्यक्ति को भली-भांति समझ लेना चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति बुरा कार्य करता है तो उसका परिणाम स्वयं ही उसके सामने आ उपस्थित होता है। कृतकर्म कभी भी अपना कर्ज वसूल किये बिना नहीं रहते, फिर हमें दुःख के बदले में ही सही पर दूसरे को दुःख देकर अपने कर्मों का बन्धन क्यों करना चाहिए ? हमें दुःख देने वाला तो उसका फल स्वयं ही भुगत लेगा फिर हम क्यों बीच में पड़कर जबर्दस्ती पाप कर्म बाँधे और उसका भुगतान करें? हमें तो अपना अपकार करने वाले का भी उपकार ही करना चाहिए । संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है
उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः ?
अपकारिषु यः साधुः स साधुः सद्भिरुच्यते । कहते हैं उपकार करने वाले के साथ साधुता रखने पर क्या विशेषता है ? सच्चा साधु तो यह है जो अपकार करने वालों के प्रति भी साधुता रखे अर्थात् उसका भी उपकार करे और उपकार करते न बने तो समभाव रखे ।
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