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आगलो अगन होवे, आप होजे पाणी
आत्मसात कर लेती हैं। अपने उत्तम संस्कारों को और उत्तम विचारों को वे प्राण जाने पर भी नहीं छोड़तीं। यही कारण है कि वे सफल पुत्री, सफल पत्नी और अन्त में सफल माता सिद्ध होती हैं और उनके कारण ही घर स्वर्ग बनता है।
इसीलिए कवि ने पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक महत्त्व देते हुए उन्हें सीख दी है कि- "तुम कलह, कट-वचन और अप्रिय व्यवहार करने का सर्वथा त्याग कर दो और घर में सुयश की प्राप्ति करो।"
वस्तुतः उसी व्यक्ति से अपील की जाती है या आग्रह किया जाता है जिसके द्वारा अपील या आग्रह को माने जाने की आशा होती है। आप जानते ही हैं कि आपकी बिरादरी के व्यक्ति यानी पुरुष अत्यन्त अस्थिर-चित्त होते हैं । प्रथम तो वे अच्छी बात को जल्दी ग्रहण करते नहीं, और किसी प्रकार कर भी लेते हैं तो अभिमान, ईर्ष्या, लोभ या क्रोध की एक लहर आते ही सब भूल जाते हैं। इसके अलावा जब वे बाह्य परिस्थितियों से मुकाबला नहीं कर पाते तो घर आकर स्त्रियों पर बरसना, उन्हें गालियाँ देना, मारना या और कुछ न बन पाये तो खाने की थाली, गिलास या कटोरियाँ फेंक देना अपना जन्मसिद्ध या पुरुषोचित कार्य समझते हैं ।
किन्तु नारी सहनशील होती है। वह स्वयं महान् कष्ट सहकर भी घर की व्यवस्था करती है, सन्तान का पालन-पोषण करती है और ऊपर से पुरुष के अत्याचारों को हँसते हुए सहकर उसे क्षमा करती हुई सुमार्ग पर लाने का प्रयत्न करती है । ये विशेषताएं केवल उसी में होती हैं अतः उससे ही कवि आग्रह करता है कि- "तुम 'घ' अक्षर के द्वारा घर में सुयश की प्राप्ति करना और 'न' के द्वारा नरम यानी कोमल शब्दों के उच्चारण करने का ही प्रयत्न करना । कभी भूलकर भी अपनी सहज मधुरता का त्याग करके कठोर शब्दों का उच्चारण मत करना । क्योंकि कट-वचन महान् अनर्थ के कारण बनते हैं और कभी-कभी तो वे हृदयों को जीवन भर सालते रहते हैं। महाभारत में कहा भी है
कणिनालीक-नाराचान, निहरन्ति शरीरतः । वाक्शल्यस्तु न निहतुं, शक्यो हृदिशयो हि सः ॥
-अनुशासन पर्व १०४ बन्दूक की गोली एवं तीर तो प्रयत्न करने पर शरीर से निकल ही जाते हैं, किन्तु वचन का शल्य हृदय में चभता ही रहता है ।
'अंधे के बेटे अंधे होते हैं।' द्रौपदी के द्वारा उपहास में कहा गया यह कटवाक्य दुर्योधन के हृदय से जीवन के अन्त तक भी नहीं निकला और महाभारत के रूप में महान् अनर्थ का कारण बना । इसीलिये कवि बहनों से आग्रह करता है कि वे
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