SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग हम तो देखते हैं कि भारत के इतिहास में अनेकानेक महान् नारियाँ हुई हैं। उनमें झांसी की रानी के समान समरभूमि में लड़ने वाली वीरांगनाएँ, सती सीता एवं सुभद्रा जैसी पतिव्रताएँ, ब्राह्मी, सुन्दरी, गार्गी एवं मैत्रेयी जैसी विदुषियों और चन्दनबाला जैसी धर्मपरायणा नारियाँ हुई हैं। हमारे जैन संघ में तो महासतियों की इतनी प्रतिष्ठा है कि प्रत्येक जैन श्रावक पुरुष होकर भी प्रातःकाल उठकर मंगलकारिणी सोलह सतियों के नाम का उच्चारण एवं उनका गुणगान करता है । ___ ध्यान में रखने की बात है कि जैन धर्म के अलावा अन्य धर्म भी नारी जाति को अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । वे कहते हैं विद्याः समस्तास्तव देवि ! भेदाः, स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु । या याश्च ग्राम्यदेव्यः स्युस्ताः सर्वाः प्रकृतेः कलाः । कलांशांशसमुद्भूताः, प्रति विश्वेषु योषितः ।। (देवी भागवत) अर्थात् समस्त विद्याएँ और सब स्त्रियाँ देवी का ही रूप हैं । समस्त ग्राम्यदेवियाँ और समस्त विश्वस्थिता स्त्रियाँ प्रकृति-माता की अंशरूपिणी हैं। नारी जाति की ऐसी महत्ता का अनुभव करने के कारण ही वे यह भी मानते हैं यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः । कितनी सुन्दर एवं आदरसूचक विचारधारा है कि जहाँ नारियों का सम्मान किया जाता है वहाँ देवता भी निवास करते हैं अर्थात् वह स्थान स्वर्ग बन जाता है। पर इन विचारों को मूर्तरूप में लाने के लिए बालक के समान ही बालिकाओं को भी शिक्षा-प्राप्ति का समुचित अवसर एवं साधन मिलने चाहिये । आखिर जन्म से तो कोई भी शिशु अपने साथ ज्ञान एवं सुसंस्कार लेकर नहीं आता। वह धीरे-धीरे ही अपने आस-पास के वातावरण से, शिक्षक से अथवा धर्मगुरुओं से इन्हें प्राप्त करता है और इसीलिये अगर बालिकाओं को भी बालकों के समान ही ज्ञान-प्राप्ति के साधन प्राप्त होंगे तो वह सन्नारी बनेगी और अपने घर को स्वर्ग बना सकेगी। इतना मैं अवश्य कहता हूँ कि बालक की अपेक्षा बालिका अधिक संवेदनशील, भावक, समझदार एवं ग्राह्यशक्ति को धारण करने वाली होती है अतः जहाँ लड़के साधन अधिक मिलने पर भी उनसे लाभ कम ग्रहण करते हैं और अधिकतर उसका दुरुपयोग भी करते हैं, वहाँ लड़कियाँ संस्कार एवं ज्ञान-प्राप्ति के साधन कम मिलने पर भी उनसे अधिक लाभ लेती हैं और जो कुछ उन्हें प्राप्त होता है, उसे दृढ़ता से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy