SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगलो अगन होबे, आप होजे पाणी यह है कि ऐसा तभी होता है, जब नारियों को पुरुषों के समान प्रारम्भ से शिक्षा नहीं दी जाती है और उनमें सावधानी से उत्तम संस्कार नहीं भरे जाते । प्राचीन काल में, दूसरे शब्दों में भारतीय सभ्यता के प्रारम्भिक काल में नारी जाति की महत्ता और प्रतिष्ठा का बड़ा ध्यान रखा जाता था। किन्तु मध्य युग में ऐसी अनिष्टकर विचारधारा फैली कि पुरुषों ने नारी जाति के साथ बड़ा अन्यायपूर्ण व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया। सामाजिक एवं धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में उसकी अवहेलना की जाने लगी । अपने आपको महान् नीतिकार एवं विद्वान कहने वाले व्यक्तियों ने तो यहाँ तक कहा कि नारी स्वभाव से ही चंचल, मूर्ख, चरित्रहीन एवं कलहप्रिय होती है । इसलिये उसे सदैव डंडे के बल पर चलाना चाहिए तथा कभी भी स्वतन्त्र नहीं रहने देना चाहिए। किसी-किसी ने तो यहाँ तक कहा कि स्त्रियो हि मूलं निधनस्य पुंसः, स्त्रियो हि मूलं व्यसनस्य पुंसः । स्त्रियो हि मूलं नरकस्य पुसः, स्त्रियो हि मूलं कलहस्य पुंसः ॥ अर्थात् -स्त्रियाँ पुरुष की मृत्यु का कारण हैं, स्त्रियाँ पुरुष की विपत्ति का कारण हैं, स्त्रियाँ नरक गति का मूल कारण हैं, और स्त्रियाँ ही पुरुष के कलह का कारण हैं। इतना ही नहीं, स्त्रियों के लिये यह भी कहा गया अनृतं साहसं माया, मूर्खत्वमतिलोभिता । अशौचं निर्दयत्वञ्च, स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ।। यानी झूठ, साहस, कपट, मूर्खता, लोभ, अपवित्रता और क्रूरता ये सब स्त्रियों के स्वभावजन्य दोष हैं। बन्धुओ, मध्ययुग के पुरुषों की यह विचारधारा उनकी स्वार्थपरायणता और घोर अन्याय की सूचक है साथ ही पुरुषवर्ग के लिये महान कलंक की बात है। क्या पुरुषों को जन्म देकर उन्हें अपने कलेजे का रक्त पिलाने वाली तथा अपने सम्पूर्ण सुखों का बलिदान करके सैकड़ों कष्टों को सहन करती हुई भी अपनी सन्तान एवं पति को सुखी रखने का प्रयत्न करने वाली नारी पुरुष के कलह और उसकी मृत्यु का कारण भी बन सकती है ? कभी नहीं। हमारे शास्त्र पुकार-पुकार कर यही कहते हैं कि कोई भी प्राणी किसी दूसरे को स्वर्ग या नरक में नहीं भेज सकता। अपने-अपने कृतकर्मों के अनुसार ही वह विभिन्न योनियों की प्राप्ति करता है । अगर स्त्रियाँ पुरुषों के नरक का मूल या कारण होती तब तो सभी पुरुष नरक में ही जाते, दूसरी कोई योनि उनके लिये प्राप्य नहीं होती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy