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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग इनसे शुभ फल की प्राप्ति संभव भी कैसे हो सकती है ? इनसे तो जन्म और मरण रूपी परिणाम ही सामने आता है। इनका मूल कर्म हैं। अशुभ कर्मों के कारण ही जीव को पुनः पुनः जन्म-मरण करने पड़ते हैं। इस संसार में जन्म और मरण के समान अन्य कोई दुःख नहीं है। अध्यात्मप्रेमी कविवर श्री दौलतराम जी ने अपनी छहढाला नामक पुस्तक की पहली ढाल में कहा है जननी उदर बस्यो नव मास, अंग सकुच तें पाई श्रास । निकसत जे दुख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर । इस प्रकार संसार में जन्म लेते समय जीव को घोर दुःख उठाना पड़ता है और मरते समय तो उससे भी अनन्तगुना कष्ट भोगना पड़ता है। पर इन दुःखों का कारण कर्म ही होते हैं जो जीव को पुनः पुनः इन कष्टों को भोगने के लिये बाध्य करते हैं । इसीलए ज्ञानी पुरुष मन को निर्मल रखने के लिए बार-बार प्रेरणा देते हैं ताकि मन की अशुद्धता के कारण कर्मों का बंधन न हो। __मराठी भाषा में संत तुकाराम जी कहते हैं --- . नाहीं निर्मल जीवन, काय करील साबणा । तैसे चित्त शुद्ध नाही, तेथे बोध करील काही ? वृक्ष न धरी पुष्प फल, काय करील वसंतकाल ? पद्य का भावार्थ है - जब पानी स्वच्छ नहीं होता तो वस्त्र पर साबुन रगड़ने से क्या लाभ हो सकेगा? ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में वर्णन आता है कि खून से सना हुआ वस्त्र खून से ही धोया जाय तो वह कदापि साफ नहीं होगा। यही बात तुकाराम जी ने कही है कि जब तक जीवन शुद्ध नहीं होगा और मन में कलुषता रहेगी तब तक उपदेश रूपी साबुन का क्या असर होगा ? कुछ भी नहीं । जिस प्रकार चिकने घड़े पर पानी डालने से वह निरर्थक बह जाता है, इसी प्रकार मन के राग-द्वेष से मलिन रहने पर बोध दिया हुआ भी निरर्थक चला जाता है। एक उदाहरण भी दिया गया है कि-मान लो वसंत ऋतु आती है और वह सम्पूर्ण पृथ्वी को हरी-भरी कर देती है। प्रत्येक वनस्पति पुष्प और फल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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