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आनन्दप्रवचन | पांचवां भावः
उस भव्य प्राणी की आत्मा प्रतिपल अपने आपको बोध देती रहेगी कि अनन्त काल तो इस जगत में जन्म-मरण करते हुए व्यतीत हो गया और अब भी इस सर्वोत्कृष्ट मानव देह को पाकर मैंने इसके छुटकारे का प्रयत्न न किया तो फिर कौनसा जम्म लेकर इस संसार सागर से पार उतरूंगा ।
कवि बाजिंद की आत्मा अपने आपको यही कह रही हैं
झूठा जग जंजाल पड़ या तै फंद में,
छूटन की नहि करत फिरत आनंद में । या में तेरा कौन, सम जब अंत का,
उबरन का ऊपाय सरण इक संत का ।
पद्य में कहा है- -'अरे आत्मन् ! इस जगत के झूठे जंजाल में तू पड़ा हुआ है और नाना कष्ट सहने पर भी इसके फंद से छूटने की कोशिश नहीं करता । इस थोड़े से जीवन को सब कुछ समझकर आनन्द से इसी में रम गया है, जैसे अब कभी यहाँ से जाना ही नहीं है । पर मैं कहता हूँ कि जब अन्त समय आ जाएगा तो तेरा कौन बनेगा ? कभी भविष्य में बंधे हुए पाप कर्मों से छुटकारा दिलायेगा ? कोई भी नहीं ! इसलिए इस भव-सागह से उबरने का प्रयत्न कर और इससे पार होने के लिये संतों का आश्रय ले । संत ही तुझे सच्चा मार्ग सुझाएँगे और संसार से मुक्त होने का उपाय बनाएँगे ।
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तो बंधुओ, जो भी भव्य प्राणी सीख को आत्मसात करेगा तथा सत्संगति में रहकर सच्चे धर्म का मर्म समझेगा । वह निश्चय ही इस लोक और परलोक में सुखी बनेगा |
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