SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ आनन्दप्रवचन | पांचवां भावः उस भव्य प्राणी की आत्मा प्रतिपल अपने आपको बोध देती रहेगी कि अनन्त काल तो इस जगत में जन्म-मरण करते हुए व्यतीत हो गया और अब भी इस सर्वोत्कृष्ट मानव देह को पाकर मैंने इसके छुटकारे का प्रयत्न न किया तो फिर कौनसा जम्म लेकर इस संसार सागर से पार उतरूंगा । कवि बाजिंद की आत्मा अपने आपको यही कह रही हैं झूठा जग जंजाल पड़ या तै फंद में, छूटन की नहि करत फिरत आनंद में । या में तेरा कौन, सम जब अंत का, उबरन का ऊपाय सरण इक संत का । पद्य में कहा है- -'अरे आत्मन् ! इस जगत के झूठे जंजाल में तू पड़ा हुआ है और नाना कष्ट सहने पर भी इसके फंद से छूटने की कोशिश नहीं करता । इस थोड़े से जीवन को सब कुछ समझकर आनन्द से इसी में रम गया है, जैसे अब कभी यहाँ से जाना ही नहीं है । पर मैं कहता हूँ कि जब अन्त समय आ जाएगा तो तेरा कौन बनेगा ? कभी भविष्य में बंधे हुए पाप कर्मों से छुटकारा दिलायेगा ? कोई भी नहीं ! इसलिए इस भव-सागह से उबरने का प्रयत्न कर और इससे पार होने के लिये संतों का आश्रय ले । संत ही तुझे सच्चा मार्ग सुझाएँगे और संसार से मुक्त होने का उपाय बनाएँगे । 1 तो बंधुओ, जो भी भव्य प्राणी सीख को आत्मसात करेगा तथा सत्संगति में रहकर सच्चे धर्म का मर्म समझेगा । वह निश्चय ही इस लोक और परलोक में सुखी बनेगा | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy