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सच्चे महाजन बनो !..
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बैठे-बैठे खाया जाय तो खतम हो जाता है। इसी प्रकार पूर्वजों के कमाये हुए यश के लिए भी आपको विचार करना चाहिए कि आखिर वह कब तक आपका साथ देगा आप स्वयं तो कुछ करेंगे नहीं, और अपने पूर्वजों के उपार्जित यश से अपने पीछे महाजन आदि की पदवियां लगाते रहेंगे तो कब तक सचाई छिपी रहेगी ? आखिर तो लोग समझ ही जाएँगे कि आप अब नाम के महाजन रह गये हैं, स्वयं तो कुछ भी महान् या शुभ नहीं करते । और जब वे यह अनुभव करेंगे तो क्या वे आपका उपहास नहीं करेंगे ? क्या आपकी हंसी नहीं उड़ाएंगे ।
___इसलिए अब आवश्यक है कि लोग आपको महाजन कहते हुए हँसे या महाजन कहते हुए व्यंग करें, उससे पहले ही आप अपने उत्तम कार्यों से सच्चे महाजन बन जाएं।
अन्त में मैं केवल यही कहना चाहता हूँ बंधुओ, कि पयूषण पर्व के इन पुनीत दिनों में तो कम से कम आप अपने एक वर्ष के शुभ-अशुभ कार्यों का हिसाब करें तथा आगे के लिए दृढ़तापूर्वक कुछ न कुछ नवीन त्याग, ब्रत और नियमादि अपनाएं।
मैं यह नहीं कहता कि आप सभी हमारे जैसे साधु बन जायें। आप अपने सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करें पर सच्चे श्रावक तो बनें । अगर श्रावक के बारह व्रत भी आप सच्चे मायने में ग्रहण करें तो आपके सांसारिक कार्यों में क्या ऐसी बाधा आती है ? कुछ भी नहीं उलटे यह तो मन को तसल्ली रहती है कि हम आत्मकल्याण के मार्ग पर शनैः-शनैः कदम तो रख रहे हैं ।
श्रावक का महत्व कम नहीं है । आप जानते ही हैं कि आनन्द श्रावक ने अपने श्रेष्ठ जीवन के बल पर ही अवधिज्ञान तक हासिल कर लिया था क्या वे साधु बने थे ? केवल आपके जैसे श्रावक ही तो थे । माता मरुदेवी ने हाथी पर बैठे-बैठे भी केवल ज्ञान पाया था। क्या वे साध्वी बनी थीं ? नहीं।
मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि श्रावक जीवन भी अगर श्रेष्ठता से यापन किया जाय तो आत्मा निर्मलता की ओर बढ़ती है तथा कर्मों से रहित होती जाती है यही तो हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है । और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्यक्ति अगर इतना ही सदा स्मरण रखे कि यह संसार हमें एक दिन अवश्य छोड़ना है और मृत्यु अवश्यंभावी है, तो वह इसमें कभी आसक्ति नहीं रख सकता। निश्चय ही उसका मन सदा उदासीन और विरक्त रहेगा तथा उसकी आत्मा सदा के लिए इस संसार को त्याग देने के लिये विह्वल रहेगी। परिणाम यही होगा कि वह आत्मोत्थान के मार्ग पर बढ़ सकेगा और अपने उद्देश्य को पाकर रहेगा।
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