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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाप
अब धर्मराज और स्वयं इन्द्र भी विचार में पड़ गए। सोचने लगे-"इतना पुण्यात्मा पुरुष नरक में कैसे रह सकता है ? बाखिर वे दोनों ही नरक में राजा को समझाने के लिए आये और बोले-"राजन् ! आप महान् धर्मात्मा और भारी पुण्य के अधिकारी हैं ? हम आपको नरक में कैसे रहने दे सकते हैं ? आप तो अपने स्थान स्वर्ग में ही चलिये।" इस प्रकार अमरावती के अधीश्वर को भी नरक में पुण्यात्मा राजा के जीव को बुलाने आना पड़ा। साथ में विमान भी था उन्हें ले जाने
के लिये।
किन्तु राजा अपनी बात से टस से मस नहीं हुए। वे दृढ़तापूर्वक बोलेआप देख रहे हैं कि ये लक्ष-लक्ष नारकीय जीव कितनी यन्त्रणा यहाँ पा रहे हैं। इसलिए मैं अपना सम्पूर्ण पुण्य इन दुखी जीवों को दान करता हूँ। आप उसके बल पर इन्हें यहाँ से ले जायें।" यह कहते हुए राजा ने जल हाथ में लेकर संकल्प कर दिया।
थोड़ी ही देर बाद राजा ने देखा कि वे सारे नारकीय जीव विमानों में बैठबैठकर स्वर्ग की ओर जा रहे हैं। उन्हें यह देखकर अपार हर्ष हुआ और चैन की सांस आई। . कुछ देर पश्चात् देवराज इन्द्र बोले-"अब आप चलिये। नरक के जीव तो आप देख ही रहे हैं कि स्वर्ग में जा रहे हैं।"
पर राजा ने उत्तर दिया-"देवराज ! आप ही सोचिये कि जब में अपना समस्त पुण्य नरक के इन जीवों को दान कर चुका हूँ तो फिर किस बल पर स्वर्ग जाऊंगा ? मैं स्वर्ग नहीं जा सकता, यहां अकेला ही रहंगा। आप संभवतः भूल में पड़ गए हैं, पर कर्मों के निर्णायक धर्मराज भूल नहीं कर सकते।"
अब तक धर्मराज चुप थे पर राजा की बात सुनकर वे मधुर स्मित के साथ बोले-"महाराज, अपने समस्त पुण्य का दान करके तो आपने और भी अधिक पुण्यसंचय कर लिया है। उसका फल भी तो आपको मिलना चाहिये अतः आप स्वर्ग पधारें । दिव्य लोक आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।" .
इस प्रकार उस पुण्यात्मा जीव ने अपने साथ असंख्य नारकीय जीवों का भी उद्धार कर दिया।
तो बंधुओ ! ऐसे-ऐसे उदाहरण और महापुरुषों के जीवन चरित्र ही तो हमारे लिये भाव का काम करते हैं । उन भव्य पुरुषों और महान् पूर्वजों के गुणानुवाद हमारे मन में भी सद्गुण ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं। इसीलिए 'अंतगड़' जैसे
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