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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग भोर ही तें साँझ लग, साँझ ही तें भोर लग,
सुदर कहत दिन ऐसे ही भरत है। पाँव के तरे को नहीं सूझ आग मूरख ,
__ और सू कहत तेरे सिर पै बरत है ।। ... छिद्रान्वेषी व्यक्ति के विषय में कवि ने कहा है कि ऐसा व्यक्ति अपने अवगुण नहीं देखता, वह औरों के दोष ही ढूढ़ता फिरता है। जिस प्रकार किसी ने बड़ा सुन्दर प्रासाद बनाया हो और कहीं भी उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न रखी हो, पर अगर एक कीड़ी वहाँ पहुँच जाय तो वह उसमें छोटा सा छिद्र भी ढूढ़ ही लेती है।
सुबह से शाम और शाम से सुबह तक वह यही करता है । कवि ऐसे व्यक्ति को तिरस्कृत करता हुआ कहता है कि वह मूर्ख अपने पैरों के नीचे जलती हुई आग को तो देखता नहीं पर दूसरों से कहता है कि तेरे सिर पर की पगड़ी जल रही है।
बंधुओ, यही हाल आज हमारे समाज में रहने वाले व्यक्तियों का है । सब एक दूसरे की बुराई करते हैं तथा औरों की पगड़ी उछालने के प्रयत्न में लगे रहते हैं, पर स्वयं में रहे हुए दुर्गुणों की पहचान नहीं कर पाते । अपने आपको वे सर्वगुणसम्पन्न मानते हैं और अन्य सभी को दुर्गुणी। पर सज्जन पुरुष ऐसा नहीं करते। वे औरों के दोष देखने में अरुचि रखते हैं तथा अपने में रहे हुए दोषों को खोजते हैं । ऐसे व्यक्ति ही अपनी आत्मा को सरल, निर्मल एवं दोषरहित बना सकते हैं । भव्य आत्माएँ तो औरों के दोष देखना दूर, किसी को तनिक से दुख में भी नहीं देख सकतीं। उनका हृदय सदैव पर-दुःखकातर बना रहता है तथा वे हर सम्भव प्रयत्न के द्वारा उनके दुख को मिटाने का प्रयत्न करते हैं, चाहे इसके लिए स्वयं उन्हें कैसे भी कष्ट क्यों न उठाने पड़े। नारकीय प्राणियों की मुक्ति
पुराण की एक कथा में बताया गया है कि किसी महान् पुण्यात्मा राजा का शरीरान्त हो गया । वैसे वह राजा स्वर्ग का अधिकारी था, किन्तु छद्मस्थ जीवन होने के कारण कुछ छोटी-मोटी भूल उससे हुई थी और इस वजह से एक बार उसे नरक में से गुजरने का विधान था।
जब उसका देहान्त हुआ तो धर्मराज के दूत उसके जीव को लेने आए और बड़े आदर व सम्मान की भावना से उसे ले चले । पर धर्मराज ने अपने दूतों को आदेश दे रखा था कि-'राजा ने असंख्य पुण्यों का संचय किया है अतः उन्हें स्वर्ग तो लाना ही है किन्तु उन्होंने जीवन में प्रमाद के कारण जो भूलें की हैं, उसके कारण नरक का
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