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________________ सच्च महाजन बनो ! अन्दर से पूर्णतया एक होता है। किन्तु आज तो हम देखते हैं कि लोग ऊपर से प्रेम दिखाते हैं पर अन्दर ही अन्दर खींचातानी में पड़े रहते हैं। उस संतरे के समान, जो ऊपर से तो एक और सुन्दर दिखाई देता है मगर अन्दर फांकें होती हैं और फांकों में भी अलग-अलग गण होते हैं। अरे भाई ! मैं आप लोगों से यह पूछता हूं कि अलग-अलग रहकर आप कौनसा कार्य सिद्ध कर लोगे ? एक होकर रहने से तो एक दूसरे के सुख-दुःख को समझोगे, और एक-दूसरे के सहायक बनोगे । हमारा धर्म तो कहता है -- आत्मवत् सर्व भूतेषु ।' यानी जगत के समस्त प्राणियों को अपने समान समझो। फिर मानवमानव में तो अन्तर है भी क्या ? यह महाराष्ट्र का, यह गुजरात का, यह काठियावाड़ का और यह पंजाब का है, ऐसा समझने से काम नहीं चलेगा। सभी को अपना भाई समझो और आवश्यकतानुसार उनका भला करो। ___कल मैंने आपको कहा था कि अपने आपको सार्थवाह बनाओ, स्वार्थवाह मत बनाओ। अर्थात् खुदगर्जी मत रखो, अपने समाज के अन्य व्यक्तियों का भी ध्यान रखो। अगर प्रत्ये- सम्पन्न व्यक्ति अपने समीपस्थ व्यक्तियों के दुःख-सुख का ध्यान रखे तथा उनके अभावों को दूर करने का प्रयत्न करे तो समाज में कोई भी दुखी या अभावग्रस्त न रह जाय । हम इतिहास में पढ़ते हैं कि पाली शहर में पहले करीब एक लाख पोरवालों के घर थे । वहाँ पर अगर कोई नया व्यक्ति आकर बसना चाहता तो वहां के सभी व्यक्ति उस आगंतुक को एक-एक ईट और एक-एक रुपया देते थे। फलस्वरूप ईटों से उसका मकान बन जाता और साथ ही एक-एक रुपया पाकर वह लखपति भी बन जाता था । जरा विचार कीजिये कि एक घर से एक मिट्टी की ईट और एक रुपया देना क्या बड़ी बात है ? क्या फर्क पड़ता है इसमें ? महापुरुष तो अपने शरीर को भी औरों के भले के लिए त्याग देते हैं। अस्थिदान वैष्णव साहित्य में महर्षि दधीचि के विषय में कथा आती है कि उन्होंने अपने शरीर की हड्डियां ही परोपकार के लिये दे दी थीं।। ___ कथा इस प्रकार है कि वृत्रासुर ने अपने असुरों के साथ देवताओं पर आक्रमण किया और अमरावती पर कब्जा कर लिया। स्वर्ग पर अधिकार करके असुर वहाँ मनमानी करने लगे तथा वहाँ के उद्यानों को भी तहस-नहस कर डाला। देवताओं के समस्त शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र व्यर्थ चले गये और वे असुरों को हरा कर भगा न सके। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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