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________________ ३३२ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग अतः हम इनके वश में रहकर अगर व्यर्थ के प्रपंचों में उलझे रहे, वैमनस्य पैदा करके कषायों के बंधनों को मजबूत करते रहे तो फिर आत्मा को अपने सही स्वरूप में कब ला सकेंगे ? क्योंकि काल तो सदा सिर पर मंडराता ही रहता है, न मालूम कब उठाकर ले जाएगा । उनका यह चिन्तन उन्हें सदा कर्तव्य-रत बनाए रहता था और वे बिना समय गँवाए हुए तथा बिना निरर्थक कर्म-बन्धन करते हुए अपने धर्म में जागरूक रहते थे। शास्त्रकारों ने कहा भी है - जं कल्लं कायव्वं, गरेण अज्जेव तं वरं काउ । मच्चू अकलुणहिमओ, न हु दीसइ आवंयतो वि । -बृहत्कल्पभाष्य ४६७४ -जो कर्तव्य कल करना है वह आज ही कर लेना अच्छा है। मृत्यु अत्यंत निर्दय है, यह कब आकर दबोच ले, मालूम नहीं, क्योंकि वह आती हुई दिखाई नहीं पड़ती। । वस्तुतः जो व्यक्ति चिंतन करता है वह अपने कर्तव्य को समझ लेता है, और उसका पालन करने में तत्पर रहता है। परिणाम यह होता है कि वह अपने जीवन को सार्थक करने के लिए शुभ-कर्म की साधना में संलग्न बना रहता है। किन्तु इसके विपरीत जो आत्म-चिंतन नहीं करता वह दुनियादारी के प्रपंचों में ही सदा पड़ा रहता है । दुनियादारी के लिए तो आप सदा ही चिन्तन करते हैं। अपने व्यापारधंधे के लिये, लड़के लड़कियों की ब्याह-शादियों के लिये और मकान आदि बनवाने के लिये तो आप रात-दिन एक करते हैं पर यह चिंतन बाह्य और निरर्थक है। मैं आपसे आत्म-चिन्तन की बात कह रहा हूँ। अपना धर्म क्या है ? समाज के प्रति कर्तव्य क्या है और आत्मा की मुक्ति का रहस्य क्या है ? क्या इन सबका चिंतन भी आप कभी करते हैं ? अपनी भौतिक संपत्ति का आप बारह महीने में हिसाब देखते हैं, आढावा निकालते हैं । किन्तु क्या कभी इसका भी आढ़ावा निकालते हैं कि मैंने अपनी जाति, समाज और देश के लिये क्या किया, अथवा आत्मा के कल्याण के लिए कितना त्याग और तप किया ? नहीं, यह आपके चिंतन में कभी नहीं आता। इसलिए आप अपने भाई से लड़ते हैं, समाज की उपेक्षा करते हैं और धर्म के नाम को कलंकित करते हैं। ध्यान में रखने की बात है कि भले ही ऊपर से दिखाई देने वाले व्यवहार में आप अलग मालूम पड़ते हों, पर आत्मिक स्नेह में अन्तर नहीं होना चाहिए । ठीक खरबूजे के समान, जो ऊपर से अलग-अलग फांकों के रूप में दिखाई देता है पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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