________________
३३०
आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
बारे में जान सकते हैं, उनके धर्माराधन करने के तरीकों को समझ सकते हैं तथा त्याग एवं तपस्या में रही हुई उनकी दृढ़ता से शिक्षा ले सकते हैं । यह क्या कम बात हैं ?
हैं
आप अपने बच्चों को बोलना सिखाते हैं तो क्या बार-बार एक ही शब्द का उच्चारण नहीं करते ? उसे चलना सिखाते हैं तो क्या उसके पुन: पुन: गिरने पर भी आप उसे पुन: पुन: खड़ा नहीं करते ? क्यों करते ऐसा ? इसीलिए तो, कि आप बार-बार एक शब्द को बोलेंगे तो वह बोलना सीख जाएगा। यही हाल महामानवों के जीवनचरित्र को बार-बार पढ़ने से होता है । अर्थात् - अगर हम पुन:पुनः उनके विषय में पढ़ेंगे और सुनेंगे तो हमारा मन भी उनके जैसे सद्गुणों को अपनाने की इच्छा करेगा, उनकी दृढ़ता के विषय में जानने से हमारा आत्मविश्वास और आत्मबल बढ़ेगा तथा उनके महान् त्याग के उदाहरण सुनने से हमारी प्रवृत्ति भी सांसारिक एवं नश्वर पदार्थों के प्रति रहे हुए मोह एवं आसक्ति को कम करने की ओर बढ़ेगी ।
तो यह लाभ कम है क्या ? क्या हमें अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के लिए महापुरुषों के जीवनचरित्र पढ़ना आवश्यक नहीं है ? मैं तो कहता हूँ कि आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है । ऐसा किये बिना हमारा सोया हुआ आत्म-बल कभी जाग नहीं सकेगा, और जब आत्म-बल या आत्म-विश्वास जागेगा ही नहीं तो हम आत्म-मुक्ति के प्रयत्न किस प्रकार | दृढ़ता पूर्वक सम्पन्न कर सकेंगे ? मानव जीवन की तो सार्थकता ही धर्म को अपनाने में, और उसे अपनाकर अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त करने में है । अन्यथा इस संसार में तो अनन्त प्राणी जन्म लेते हैं और जैसेतैसे जीवन यापन करके मर जाते हैं और फिर किसी योनि में जन्म लेते हुए इस जन्म-मरण के चक्र में सदा घूमते ही रहते हैं ।
इसी बात का अनुभव महात्मा कबीर ने किया था जो शब्दों में इस प्रकार कहा जाता है :
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोय । दो पाटों के बीच में साबित बचा न कोय ॥
दोहा नया नहीं है । इसे आप में से अधिकांश व्यक्ति जानते हैं और अनेक बार सुनते या पढ़ते रहते हैं । किन्तु इसका अर्थ बड़ा गूढ़ है और उसकी तह तक पहुंच जाय वह इस संसार सागर से पार उतरने के लिए छटपटाये और विकल हुए बिना रह नहीं सकता । जन्म और मरण की यह चक्की बड़ी भयंकर है । जिस प्रकार पत्थर के दो पाटों अनाज के असंख्य दाने नित्य पिसकर चकनाचूर होते रहते हैं, उसी प्रकार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org