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स्वागत है पर्वराज!
३०६ क्या अपने शरीर का मोह भी त्याग दिया तथा उसे अन्य प्राणियों की रक्षा में लगाया।
शरणागत की रक्षा में जीवन अर्पण महाराजा शिवि के बारे में आपने सुना होगा। इस वैष्णव कथा में बताया जाता है कि राजा शिवि बड़े ही दानी और करुणा के सागर थे। उनकी अतिथिसत्कार की भावना और शरणागत रक्षा की इतनी कीति फैल गई थी कि देवराज इन्द्र और अग्निदेव को उनसे ईर्ष्या हो गई । और वे शिवि की परीक्षा लेने के लिये उद्यत हो गये।
परीक्षा लेन के लिए अग्निदेव ने एक कबूतर का रूप बनाया और इन्द्र ने बाज का । इसके पश्चात् जबकि राजा शिवि अपने महल के प्रांगण में बैठे थे, कबूतर वेशधारी अग्निदेव आकर उनको गोद में गिर पड़ा और उसके बाद ही पीछे-पीछे बाज वेशधारी इन्द्र भी वहाँ आ गये । कबूतर बाज के द्वारा खा लिये जाने के भय से बुरी तरह काँप रहा था और छटपटा रहा था। प्राण-भय के कारण वह राजा शिवि के वस्त्रों में छिपने लगा। राजा ने उसके शरीर पर बड़े प्रेम से हाथ फेरा और पुचकारा।
इतने में ही बाज स्पष्ट मानवी भाषा में बोला-"महाराज! यह कपोत मेरा आहार है । मैं बहुत भूखा हूँ अतः मेरा भोजन मुझे दीजिये। आपका यह धर्म नहीं है कि आप किसी के मुंह का ग्रास छीनें।"
राजा शिवि ने कहा- 'तुम्हारा पेट तो अन्य किसी के भी मांस से भर जाएगा। मैं अपने शरणागत को मौत के मुंह में नहीं डालूगा ।"
"तो फिर मैं क्या खाऊँ ? भूख से छटपटा रहा हूँ, अब दूसरा शिकार ढूढ़ने कहाँ जाऊँगा?'
शिवि ने सहज भाव से उत्तर दिया
"तुझे मैं अन्यत्र भटकने नहीं दूंगा । मांस ही चाहिए न तुम्हें ? तो मेरा मांस ले लो और अपनी उदर-पूर्ति करो।"
"पर मैं इस कबूतर के तौल के बराबर ही मांस लूगा।" बाज बोला ।
"मैं उतना ही मांस तुम्हें बराबर तौलकर देता हूँ। घबराओ नहीं।" यह कहते हुए शिवि ने एक बड़ी तराज वहां मगवाई और उसके एक पड़े पर भयग्रस्त कबूतर को बैठा दिया और दूसरे पलड़े पर अपनी जंघा का मांस अपने हाथ से काट कर रखा।
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