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________________ ३०२ __ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग सकतीं । संयम मार्ग पर चलने के लिये मनुष्य को अपनी सभी वासनाओं का दमन करना पड़ता है, इन्द्रियों को वश में करना होता है तथा कवि के कथनानुसार जीवन और मरण को भी समान समझना होता है । साधु के लिये मित्र और शत्र समान होते हैं तथा महल और मसान यानी श्मशान भी समान महत्व रखते हैं । साधु वृत्ति एक ऐसी कसौटी है, जिस पर मानव के संयम, साहस, सहनशीलता, शांति, संतोष, धैर्य एवं पवित्रता की सच्ची परख होती है। इस कसौटी पर विरले पुरुष ही खरे उतरते हैं । कायर और निर्बल व्यक्ति प्रथम तो इसे अंगीकार ही नहीं कर पाते और कदाचित कर भी लें तो उसका पालन नहीं कर सकते। ___ कवि ने आगे कहा है-मुझे ऐसे गुरु कब मिलेंगे जो धन को धूल और रत्न को कांच समझते होंगे। वस्तुतः कवि का कथन सत्य है। सच्चा संत वही है जो धन-दौलत को नफरत की निगाह से देखता है तथा उससे विषधर भुजंग के समान बचता है। सच्चे सत की क्या अभिलाषा होती है, और वह किस धन की आकांक्षा करता है यह एक उक्ति से समझा जा सकता है। वह इस प्रकार है "ऐ कनाअत तवंगरम गरमां कि वेश अज तो हेच नेमते नेस्त ।" अर्थात्-हे सन्तोष ! मुझे तो तू ही दौलतमंद बना; क्योंकि इस संसार में तुझसे बड़ा और कोई भी ऐश्वर्य नहीं है। . वास्तव में ही संतोष के अभाव में तो मनुष्य करोड़पति और अरब पति होने पर भी तृष्णा से पीछा नहीं छुड़ा सकता। संसार की समग्र दौलत भी उसे संतुष्ट नहीं कर सकती । किन्तु जिस समय उसके अन्तर्मानस में संतोष का शान्तिपूर्ण स्रोत प्रवाहित हो जाता है तो उसे अपना शरीर भी बोझ लगने लगता है। वह उसे कायम भी केवल इसलिये रखता है कि उसकी सहायता से कर्मों की निर्जरा होती है, यानी तप, त्याग, ध्यान, साधना, चिन्तन, मनन आदि निर्जरा करने वाली सब क्रियाएँ उसके माध्यम से ही हो सकती हैं। अगर ऐसा न होता तो वे शरीर टिकाने के लिये भी रूखा-सूखा आहार-रूप भाड़ा देने की फिक्र न करते । वैसे भी उनकी अन्तरात्मा सदा उन्हें यही कहती हुई महसूस होती है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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