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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
अपने स्थान पर आसीन हुए। सनत्कुमार जी ने अपनी दृष्टि फैलाई तो देखा कि दरबार में एक ओर वह ब्राह्मण भी बैठा है, जो प्रात काल महल में उनके दर्शनार्थ आया था। उसे देखकर उन्हें सुबह की घटना एवं ब्राह्मण की की हुई प्रशंसा याद आई और उन्होंने संकेत से ब्राह्मण को अपने समीप बुलाया। 'ब्राह्मण तुरन्त अपना स्थान छोड़कर महाराज के समीप आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया ।
चक्रवर्ती महाराज ने बड़े गर्व से कहा
"अब मेरे रूप को देखो ब्राह्मण देव ! क्या प्रातःकाल की अपेक्षा यह अनेक गुना अधिक नहीं बढ़ गया है ?"
"नहीं, अब तो वह बात नहीं रही महाराज ! इस समय आपका रूप वह नहीं रहा जो सुबह था।"
ब्राह्मण की बात सुनकर तो सनत्कुमार मानो आकाश से गिर पड़े । घोर विस्मय से वह बोले- "यह क्या कह रहे हैं आप ? मेरा रूप वह कैसे नहीं रहा जो पहले था ?"
ब्राह्मण नम्रता से बोला - "महाराज, एक पीकदान मंगवाइये ।" जब पीकदान आ गया तो ब्राह्मण ने कहा
"अब इसमें आप थुकिये महाराज !" महाराज ने उसमें थूक दिया । पर ब्राह्मण के संकेत पर उन्होंने देखा कि उनके थूक में सैकड़ों कीड़े बिलबिला रहे हैं।
"यह क्या बात है ब्राह्मण देवता ! ये कीड़े कैसे हैं इस थूक में ?"
"ये कीड़े आपकी उन बीमारियों के हैं जो आपके शरीर में पैदा हो गई हैं । आपका सौन्दर्य तो ऊपरी है । इसके अन्दर तो केवल मांस, मज्जा, रुधिर एवं अन्य दुर्गंधिपूर्ण वस्तुएं ही हैं, जिन्हें किसी भी समय रोग घेर सकता है।' ब्राह्मण ने शांतिपूर्वक महाराज को समझाया ।
यह सुनते ही चक्रवर्ती सनत्कुमार की आँखें खुल गई और उनकी समझ में आ गया कि शरीर के ऊपरी सौन्दर्य का कोई महत्व नहीं है । इसके अन्दर तो समस्त घिनौनी और अशुद्ध वस्तुएँ भरी हुई हैं जो किसी भी क्षण विकृत होकर रोगों के रूप में सामने आ सकती हैं । इतना ही नहीं वे रोग इस शरीर को कुरूप बना सकते हैं तथा नष्ट भी कर सकते हैं । यह विचार आते ही उन्होंने निश्चय कर लिया कि शरीर के इस नश्वर सौन्दर्य का मोह छोड़कर मैं आत्मा के अनश्वर सौन्दर्य को निखारूंगा, ताकि वह कभी मिट न सके और आत्मा को सदा के लिए रोग-शोक से मुक्त कर सके।
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