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________________ १६६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग कलंकित हो जाएगा। पर अगर आप भी मुझे मरवा डालना चाहते हैं तो कृपया आज्ञा दीजिए कि मैं मेरे लिए मृत्युदण्ड की सजा तजबीज करने वाले मंत्री को मार डालूं ताकि मैं बड़ा भारी खू नी बन जाऊंगा और फिर मुझ दोषी को मरवा डालने से आपको कोई यह नहीं कह सकेगा कि आपने एक निर्दोष की हत्या करवाई थी।" दास की बात सुनकर बादशाह को क्रोधित होने पर भी हँसी आ गई और वे मत्री से पूछने लगे “कहो बजीर ! इस विषय में अब तुम्हारी क्या राय है ?" बादशाह की बात सुनकर तो मंत्री महाशय के देवता ही कूच कर गये । वे धीरे से बोले- "हज़र, यह पुराना सेवक है, इसे क्षमा ही कर दीजिये।" यह उदाहरण तो हुआ दूसरों का गला काटने की इच्छा करने पर स्वयं का गला कटने की नौबत आ जाती है यह बताने वाला। इसके साथ ही मैं यह भी बताना चाहता हूँ कि दूसरे का गला काट देना ही केवल गला काटना नहीं है, वरन् बेईमानी से किसी का धन हड़पकर उसे भूखे मरने को बाध्य करना भी गला काटना हैं और अनीतिपूर्वक धंधा करके गरीबों को हानि पहुँचाना या अधिकाधिक ब्याज लेकर कभी भी कर्जदार को ऋण मुक्त न होने देना भी उसका गला काटना है । प्रायः देखा जाता है कि साहूकार मूल की अपेक्षा भी ब्याज को दुगुना, चौगुना करता चला जाता है और बेचारा कर्जदार जो एक बार किसी साहूकार के चंगुल में फंस जाता है, फिर जीवन भर उससे मुक्त नहीं हो सकता। यहाँ तक कि उसकी अगला पीढ़ियां भी ब्याज तक नहीं चुका पातीं मूल तो दूर की बात है। __ तो बंधुओ, ऐसी अनैतिकता भी दूसरे का गला काटने के बराबर ही है। आज अमीर लोग मजूरों से दिनभर कड़ा परिश्रम करवा के भी उन्हें भरपेट खाने लायक पैसा नहीं देते और इस प्रकार उनके पेट पर लात मारते हैं। ये सभी कार्य अनुचित हैं और मानवता के नाम पर कलंक हैं अतः प्रत्येक बुद्धिमान और विवेकवान व्यक्ति को इनसे बचना चाहिये। उसे चाहिये कि वह किसी भी अन्य को तकलीफ न दे तथा किसी भी प्रकार से सताए नहीं। ऐसा करने पर ही वह सच्चा नागरिक, सच्चा देशप्रेमी और सच्चा धर्मात्मा बन सकता है। अब कविता की अंतिम पंक्तियाँ सुनिये शूरवीरो, अब बची हैं अगर कुछ भी जिंदगी, आगे बदख्वाहों के तुम आंसू बहाना छोड़ दो ! बची हुई जिंदगी से कवि का अभिप्राय उत्साह एवं जिंदादिली से है । उसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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