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________________ हैं। इस प्रकार उनके विचार, वचन और क्रिया विभिन्न मार्गों में विभाजित न होकर एक ही उद्देश्य-सूत्र में समन्वित रहते हैं तथा इस एकता के कारण वाणी में अद्वितीया शक्ति. छिपी रहती है। । आपको याद होगा कि संत कबीर गोविन्द अर्थात् भगवान और गुरु दोनों में से किसे नमस्कार करें, इस असमंजस में कुछ काले रहते हैं किन्तु यह ध्यान आते ही कि गुरु ही गोविन्द की प्राप्ति कराते हैं वे चट से उन्हें अधिक महान् मानकर नमस्कार कर बैठते हैं। । कबीर का यह कृत्य सभी के समक्ष आदर्श रूप है। हम भी यह सहज ही समझ सकते हैं कि भगवान की वाणी में जहां शाश्वत का भाव है, वहाँ संत की वाणी में सत्य का सौन्दर्य । भगवान की वाणी में प्रभाव और संत की वाणी सदभाव होता हे । भगवान की वाणी से लोहे का सोना बन सकता है किन्तु संतों की वाणी हमें सोना बनाने वाले पारस के रूप में ला सकती है। इसीलिये आवश्यक है कि प्रत्येक मुमुक्ष इस संत-वाणी का स्वागत करे इसका आदर करे और पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धापूर्वक इसे आत्मसात् करके अपने जीवन को सर्वाग सुन्दर बनाये । मुझे आशा है कि आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी जैसे सरल, उदारमना, तपस्वी, कर्मठ एवं चिर-साधक संत के वचनों का जिस प्रकार अपने पूर्व चार भागों के द्वारा स्वागत किया है उसी प्रकार इस पांचवें भाग को भी ग्रहण करेंगे तथा इसे अपने धना-मार्ग का पथ प्रदीप मानकर इसके प्रकाश में अपने कदम बढ़ायेंगे । 'आनन्द-प्रवचन' के इस पांचवें भाग की प्रस्तावना विद्वत्वर्य पंडित रत्न मुनि श्री मिश्रीमल जी महाराज 'मधुकर' ने लिखी है। इसके लिए मैं बहुत आभारी हूँ। वैसे भी दीर्घकाल से मैं समय-समय पर आपके संपर्क में आई हूँ और सच पूछा जाय तो आपकी प्रेरणा एवं उत्साह-वर्धन से ही मैंने लेखन-सम्पादन आदि साहित्य सेवा के मार्ग पर कदम बढ़ाया है। आपके द्वारा संचालित "मुनि श्री हजारीमल स्मति प्रकाशन" संस्था का प्रारम्भिक सहयोग मेरे लिये संबल बना और इसप्रकार सुमधुर एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी बहुश्रुत मुनि श्री ‘मधुकर' जी महाराज का मुझपर दोहरा अनुग्रह है। ___ काश्मीर प्रचारिका एवं परमविदुषी महासती जी श्री उमरावकुंवर जी महाराज 'अर्चना' की भी मैं आभारी हूं, जिनके द्वारा मुझे सतत प्रेरणा एवं मार्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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