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________________ देहस्य सारं व्रतधारणं च १२५ था । इस प्रकार व्रत तो मंत्री जी ने बड़ी चालाकी से लिया था किन्तु उसे पालन करना भी सरल नहीं था, उसके लिये भी बहुत विवेक रखना पड़ता था । इतनी सावधानी और विवेक का परिणाम यह हुआ कि भोजन की प्रत्येक वस्तु शुद्ध रहने लगी तथा कंकरों के साथ ही अनाज आदि में रहे हुए जीव-जन्तु एवं जाले आदि निकलने लग गये । कुछ समय बाद ही प्रधान जी को महसूस हो गया कि पत्थर खाने का त्याग कर देने से वास्तव में ही बड़ा लाभ हुआ है । क्योंकि विवेकपूर्वक अनाज साफ होता है तथा इसी प्रकार खाना बनता है अतः जीव-जंतुओं की हिंसा से बचा जाता है । उन्हें यह भी समझ में आ गया कि संत जो कुछ भी कहते हैं वह बड़ा सारगर्भित होता है तथा संवर का कारण बनता है । यह शरीर तो एक दिन जाना ही है, इसकी चाहे जितनी हिफाजत क्यों न की जाय, इससे अच्छा तो यही है कि इससे कुछ लाभ उठा लिया जाय । संस्कृत के एक श्लोक में कहा भी है यस्य ग्लानिभयेन नोपशमनम् नायंबिलं सेवितम् । नो सामायिकमात्मशुद्धिजनकं नैकाशनं शुद्धितः ॥ स्वादिष्टासन-पान यान विभवैर्नक्तंदिवं पोषितम् । हा नष्टम् तदपि क्षणेन जरया, मृत्या शरीरं रुजा ॥ अर्थात् — शरीर की शक्ति क्षीण हो जाएगी इस भय से कभी उपवास नहीं किया, न ही कभी आयंबिल तप ही किया । संत महापुरुषों ने बहुत कहा कि उपवास, आयंबिल नहीं होता तो सामायिक ही कर लो, कम से कम एक घंटा ईश-भक्ति और स्वाध्याय में तो गुजरेगा और उससे आत्म शुद्धि भी हो सकेगी। किन्तु वह भी नहीं की गई । इसके पश्चात् भी अधिक भूखा न रहा जाय इसलिये एकाशन का विधान किया गया, पर एकाशन भी नहीं हो सका और इस शरीर को खूब स्वादिष्ट खिला - पिला कर पुष्ट किया । किन्तु इससे भी क्या लाभ हुआ ? आखिर तो वह वृद्धावस्था और क्षय को पाकर नष्ट हुआ ही । कहने का अभिप्राय यही है कि मानव शरीर पाकर भी व्यक्ति कायागुप्ति का ध्यान न रखता हुआ उसे शुभ कार्यों में लगाने के बजाय अशुभ कार्यों में लगाता है तथा दिन-रात अच्छा खिला-पिलाकर उसे पुष्ट करने के है । शरीर को कष्ट न पहुँचे, इसलिये दस कदम चलना भी हो अन्य सवारी में चढ़कर ही जाता है । शरीर दुबला न हो जाय प्रयत्न में ही बना रहता तो मोटर, गाड़ी या इसलिये उपवास, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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