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देहस्य सारं व्रतधारणं च
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
कल हमने संवर के सत्तावन भेदों में सातवें भेद वचनगुप्ति पर विचार-विमर्श किया था । आज संवर के आठवें भेद को लेना है । आठवां भेद है कायागुप्ति ।
गुप्त का अर्थ है, शरीर को पाप क्रियाओं से बचाकर शुभक्रियाओं में संलग्न करना । उदाहरण स्वरूप हमारे पास प्रकृति प्रदत्त हाथ हैं किन्तु अगर हम इन्हें मार-पीट में लगाते हैं तो हमारी वे क्रियाएँ आश्रव का कारण बनेंगी और इन्हीं हाथों से अपने बुजुर्गों की अथवा दीन-दुखी, अपाहिजों की सेवा करते हैं तो वे क्रियाएं संवर में सहायक बनेंगी । इसी प्रकार अपनी जिह्वा से कटु, कर्कश एवं मर्म - भेदी वचनों का उच्चारण करके अन्य व्यक्तियों को दुःख पहुँचाएंगे तो हमारी वह वाणी आश्रव का निमित्त बनेगी और अगर इसी जिह्वा से प्रभु-भक्ति करेंगे अथवा मधुर और सान्त्वना प्रदान करने वाले शब्दों का उच्चारण करेंगे तो यह जिह्वा संवर का निमित्त बन जाएगी ।
संवर का महत्त्व बताते हुए पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने लिखा है
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संवर की क्रिया परमोत्तम बखानी जिन,
संवर मारग दु:ख, दोष को हरन है । वारण करम दल, ठारन निजातम को, जारन विपद, सुद, मंगल करन है ।
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