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________________ १३ देहस्य सारं व्रतधारणं च धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! कल हमने संवर के सत्तावन भेदों में सातवें भेद वचनगुप्ति पर विचार-विमर्श किया था । आज संवर के आठवें भेद को लेना है । आठवां भेद है कायागुप्ति । गुप्त का अर्थ है, शरीर को पाप क्रियाओं से बचाकर शुभक्रियाओं में संलग्न करना । उदाहरण स्वरूप हमारे पास प्रकृति प्रदत्त हाथ हैं किन्तु अगर हम इन्हें मार-पीट में लगाते हैं तो हमारी वे क्रियाएँ आश्रव का कारण बनेंगी और इन्हीं हाथों से अपने बुजुर्गों की अथवा दीन-दुखी, अपाहिजों की सेवा करते हैं तो वे क्रियाएं संवर में सहायक बनेंगी । इसी प्रकार अपनी जिह्वा से कटु, कर्कश एवं मर्म - भेदी वचनों का उच्चारण करके अन्य व्यक्तियों को दुःख पहुँचाएंगे तो हमारी वह वाणी आश्रव का निमित्त बनेगी और अगर इसी जिह्वा से प्रभु-भक्ति करेंगे अथवा मधुर और सान्त्वना प्रदान करने वाले शब्दों का उच्चारण करेंगे तो यह जिह्वा संवर का निमित्त बन जाएगी । संवर का महत्त्व बताते हुए पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने लिखा है Jain Education International संवर की क्रिया परमोत्तम बखानी जिन, संवर मारग दु:ख, दोष को हरन है । वारण करम दल, ठारन निजातम को, जारन विपद, सुद, मंगल करन है । १२१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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