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________________ ३ चिन्तन का महत्व जो मुमुक्षु मनुष्य सदा इस प्रकार का शुभ चिन्तन करते हैं, वे शनैः शनैः अपनी इन्द्रियों पर और मन पर काबू करने में समर्थ बन जाते हैं । परिणाम यह होता है कि उनका चित्त समाधि भाव धारण कर लेता है । वह न किसी पर राग रखता है और न किसी पर द्वेष । न वह इष्ट-संयोग मिलने पर सुख का अनुभव करता है और न अनिष्ट संयोग मिलने पर दुःख का । इस प्रकार समभाव धारण करने वाला साधक ही अपने कर्मों का नाश करके शाश्वत सुख की प्राप्ति करता है । कहा भी है: - कि तिव्वेण तवेणं, कि जवेणं किं चरितणं । समयाइ विण मुक्खो, न हु हुहूओ कह विन हु होई ॥ अर्थात् - कोई चाहे कितना ही तीव्र तप तपे, जप जपे अथवा मुनि-वेष धारण कर स्थूल क्रियाकाण्डरूप चारित्र पाले; परन्तु समताभावरूप सामायिक के बिना न किसी को मोक्ष हुआ है और न होगा । - सामायिक प्रवचन तो बंधुओ ! समभाव आत्म-साधना का बड़ा महत्त्वपूर्ण अंग है और वह गंभीर तथा शुभ चिन्तन-मनन से ही प्राप्त हो सकता है। अतः प्रत्येक साधक को ही नहीं अपितु प्रत्येक मनस्वी को जीवन में जितना संभव हो उतना समय शुभ चिन्तन में लगाना चाहिए । शुभ चिन्तन के द्वारा ही वह अपने मानव जन्म के सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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