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प्राक्कथन
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प्रस्तुत पुस्तक 'आनन्द-प्रवचन' का पांचवां भाग है। इसके पूर्व 'आनन्दप्रवचन' के चार भाग प्रकाश में आ चुके हैं। वे सभी भाग काफी अच्छे लोक-प्रिय बने हैं । स्वाध्याय एक अन्तरंग तप है। प्रवचन (धर्मकथा) उसका एक अन्तिम अंग है।
. प्रवचनों का महत्व सर्वत्र सदा से है। भारतवर्ष में तो जितने ऋषि-महर्षि हुए हैं प्रायः सभी ने प्रवचन के माध्यम से ही अपनी विचार-धारा संसार के सामने रखी है । आज भी यत्र-तत्र सर्वत्र यही सिलसिला ऋषि-महर्षियों का चल रहा है।
- जैन-जगत में तीर्थंकर-पद सर्वतः उच्च पद है । अतीत, अनागत व वर्तमान के सभी तीर्थंकरों का एक ही क्रम होता है। वे सभी साधना काल में मौन-सेवी होते हैं । जब उन्हें कैवल्य की उपलब्धि होती है तो वे सर्व प्रथम प्रवचन ही देते हैं। तीर्थ-स्थापना व संघ-व्यवस्था आदि कार्य बाद में होते हैं।
तीर्थंकरों का जहां भी समवसरण होता है, वहां पर अपार भीड़ लग जाती है । वह भीड़ ही परिषदा मानी गई है। उस परिषदा में देव, मानव, पशु, पक्षी आदि सभी सम्मिलित होते हैं । उक्त परिषदा में प्रवचन के माध्यम से ही तीर्थंकर भगवान जन-जन में नैतिक जागरण व आध्यात्मिक उत्थान करते हैं।
. गणधर तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य होते हैं। वे उनके प्रवचनों को संकलित करते रहते हैं । उनका वह संकलन ही जैन जगत् का श्रुत-साहित्य माना गया है ।:: * प्रवचन देने की परम्परा आज भी मुनि जनों में चल रही है । सुदूर दिशाओं न. विचरण कर मुनिजन आज भी अपने प्रवचनों द्वाग स्व-पर हित-साधनों करते हैं।
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