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________________ १२ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग लिये ठहरें। वहाँ पर उनकी दृष्टि एक गिहरी पर पड़ी जो कि बार-बार पानी के समीप जाकर उसमें अपनी पूछ डुबोती थी और फिर किनारे पर आकर रेत में उसे झटक देती थी। बुद्ध को गिलहरी का यह कृत्य बड़ा आश्चर्यजनक लगा। उन्होंने पूछ लिया "यह क्या कर रही हो तुम ?" गिलहरी बड़े गर्व से बोली- 'इस झील को सुखा रही हूँ।" "ओह ! यह काम तो तुम हजार वर्ष तक जी कर और प्रतिपल अपनी पूंछ जल में डुबोकर झटकते रहने पर भी सम्पन्न नहीं कर सकोगी। भला यह झील भी तुम्हारी पूछ से सुखाई जा सकती है ?" "मैं किसी कार्य को असंभव नहीं मानती अतः जब तक जीऊँगी यही करती रहूंगी।" गिलहरी ने संक्षिप्त उत्तर दिया और अपने काम में लग गई। गिलहरी की बात से बुद्ध के हृदय में उजाला हो गया और उन्होंने निराशा का त्याग करते हुए दृढ़ संकल्प किया जनन-मरणयोरदृष्टपारो, नाहं कपिलाह्वयं प्रवेष्टा । . अर्थात्-जब तक बोधि प्राप्त करके जन्म-मरण का पार न देख लू, मैं भी कपिलवस्तु में प्रवेश नहीं करूंगा। बंधुओ, यह एक रूपक है पर इस बात को प्रकट करता है कि स्वावलम्बी पुरुष ही दृढ़ संकल्पी बनकर अपने अभीष्ट की प्राप्ति करता है। जिस प्रकार बुद्ध ने अपनी निराशा का त्याग करके दृढ़ संकल्प किया तथा तप में लीन होकर बोधिलाभ करके ही दम लिया। स्वाध्याय करना अब हम जीवन को सफल बनाने के चौथे सूत्र स्वाध्याय को लेते हैं । स्वाध्याय मनुष्य को केवल मनुष्य हो नहीं बनाता, अपितु उसे महात्मा और परमात्मा भी बनाता है। अगर हम संसार के महान् पुरुषों की जीवनियाँ उलट कर देखें तो सहज ही जान सकते हैं कि उन पुरुषों को महान बनाने में स्वाध्याय का हाथ ही अधिक रहा है । कहा भी है यथा यथा हि पुरुष: शास्त्रं समधिगच्छति । तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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