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________________ सच्चे सुख का रहस्य ८३ सुख नहीं है। ये केवल मिट्टी के मोदक हैं जो बाहर से तो मन को मुग्ध कर सकते हैं, किन्तु सार उनमें कुछ भी नहीं है। बाह्य पदार्थों से प्राप्त होने वाला सुख, सुख नहीं वरन सुखाभास है। ऐसा जान लेने के पश्चात् स्वभावतः मन में प्रश्न उठता है कि फिर सच्चा सुख कहाँ है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ? ___इसका उत्तर यही है कि सुख आत्मा का गुण है और गुण सदैव गुणी में ही विद्यमान रहता है अतः सच्चा सुख भी आत्मा के अन्दर ही रहता है । बाह्य पदार्थों में खोजने से वह प्राप्त नहीं हो सकता। वह इन्द्रियों के द्वारा भोगा नहीं जा सकता और वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे केवल गंगे के गुड़ की उपमा दी जा सकती है यानी वह केवल अनुभव से जाना जा सकता है। हमारे जैनागमों में इसकी प्राप्ति का क्रम इस प्रकार बताया गया है: - जया निविदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं सब्भितर बाहिरं ॥ जया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धि गच्छद नीरओ।। जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरओ। तया लोग मत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ।। _ -- दशवकालिक सूत्र ४,१७-२५ अर्थात्-जीव जब देवता और मनुष्य संबंधी समस्त काम भोगों से विरक्त हो जाता है तब बाह्य और आन्तरिक सभी संयोग त्याग देता है । माता-पिता बंधु, पुत्र, पत्नी तथा महल, मकान व धन-संपत्ति आदि बाहर के पदार्थों का संयोग बाह्य-संयोग कहलाता है और राग-द्वेष आदि मोह व कषायों का संयोग आभ्यंतर संयोग कहलाता है । जब मनुष्य बाह्य और आभ्यंतर संयोगों का त्याग कर देता है तो पूर्ण संयमी बन जाता है, संवर धर्म का अनुष्ठान करता है तथा कर्म रज को दूर करता हुआ केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् मन, वचन और काय के योगों का निरोध करके आत्मा शैलेशी अवस्था यानी सुमेरु के समान अकम्पदशा को पा लेता है और तब सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके सिद्ध गति प्राप्त कर लेता है । और जब वह सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है तो लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो जाता है और शाश्वत सिद्ध कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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