SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ १ सच्चे सुख का रहस्य तथा नाना प्रकार से खुशियाँ मनाता है, वही कल धन पर डाका पड़ जाने के कारण, पुत्र, पत्नी या अन्य किसी स्वजन की मृत्यु के कारण अथवा किसी आकस्मिक विपत्ति के कारण फूट-फूट कर रोता हुआ देखा जाता है । यानी सुख और दुख समुद्र में आनेवाले ज्वार-भाटे के समान आते-जाते देखे जाते हैं । कवि आगे कहता है -- - इस नगरी अर्थात् इस संसार रूपी माया नगरी की यही रीति है कि यहाँ कभी जीव कर्मों से जीतता है और कभी हार जाता है । इसके हृदय-रूपी अमृत में शोक का विष भी घुला हुआ रहता है जो अपना दाव लगते ही असर दिखाता है । सुख और दुख एथेन्स में सोलन नामक एक महान् दार्शनिक रहता था । एक बार वह घूमता- घामता लीबिया के राजा कारू के यहाँ पहुंच गया । कारूँ बड़ा धनवान था । आज भी उसके धन की प्रसिद्धि मैं एक कहावत बन गई है । किसी के अधिक धन प्राप्त कर लेने पर हम कहते हैं " उसे कारू का खजाना मिल गया ।" तो सोलन जब कारू के यहाँ पहुँचा तो कारू ने बड़े गर्व से अपनी दौलत सोलन को बताई । वह चाहता था कि सोलन उसे संसार का सबसे बढ़कर सुखी व्यक्ति माने और अपनी जबान से भी यही कहे । किन्तु सोलन पर कारू के खजाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह केवल यही बोला – “ इस संसार में सबसे सुखी वही माना जा सकता है जिसका अन्त सुखमय हो ।” कारू को सोलन का यह कथन बहुत ही बुरा लगा और उसने सोलन की जरा भी आवभगत किये बिना अपने राज्य से विदा कर दिया । कुछ ही समय पश्चात् कारू ने फारस के राजा साइरस पर आक्रमण किया । किन्तु वहाँ पर वह स्वयं हार गया और बन्दी बना लिया गया । साइरस ने उसे जीवित आग में जलाये जाने का हुक्म दे दिया । उस समय कारूँ को सोलन याद आई और वह सोलन, सोलन ! सोलन ! कहकर चिल्लाने लगा । साइरस को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ अत: उसने कारू से इसका तात्पर्य पूछा । कारू ने साइरस से अपनी तथा सोलन की हुए शब्द साइरस को बताये । साइरस पर भी प्रभाव पड़ा कि उसने कारूँ को छोड़ दिया । Jain Education International मुलाकात और उसके कहे सोलन की बात का इतना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy