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आनन्द-प्रवचन भाग-४
दुख होता है तो अधिक पाने वाले को बँगला और मोटर के न होने का। ___इस प्रकार धन का उपार्जन करानेवाली विद्या को हासिल करके भी व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाता।
कहने का अभिप्राय यही है कि संसारी जीव पर-पदार्थों के निमित्त से सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं किन्तु वह सुख, सुख नहीं बल्कि सुखाभास बनकर रह जाता है। क्योंकि पर-पदार्थों के द्वारा प्राप्त हुआ सुख न तो परिपूर्ण होता है और न स्थायी ही रह सकता है। पर-पदार्थों का संयोग अल्प काल तक रहता है और उसके पश्चात् उनका वियोग होना अवश्यंभावी होता है । संसारी प्राणी जिस सुख को सुख मानते हैं वह पर-पदार्थावलम्बी होने के कारण शान्त, परिमित तथा भविष्य में प्राप्त होने वाले दुःखों का मूल बन जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से वह सुख ही नहीं कहला सकता।
ध्यान दो ! बंधुओ, यहाँ एक बात पर और बारीकी से विचार करना है कि परपदार्थों से यहाँ आशय केवल बाहर के पौद्गलिक पदार्थों से ही नहीं है अपितु सातावेदनीय कर्मों से भी है। सातावेदनीय कर्म भी एक तरह से पर वस्तु ही हैं क्योंकि वे आत्म-स्वरूप नहीं हैं । पराश्रित और अस्थायी हैं अतः उनसे प्राप्त होने वाला सुख सच्चा सुख नहीं है । इन सातावेदनीय कर्मों का उदय भी आज है तो कल नहीं भी हो सकता है। हम देखते ही हैं कि संसारी जीवों को सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख यानी साता के बाद असाता और असाता के पश्चात् के साता का अनुभव होता रहता है । हिन्दी के किसी कवि ने कहा भी है:----
आज है पाना कल है खोना, आज है हँसना कल है रोना। कभी है बाधा कभी है घाटा, कभी है ज्वार कभी है भाटा।
हार कभी और जीत कभी है, इस नगरी की रीत यही है । खुशी में खेद भी मिला हुआ है,
अमृत में विष घुला हुआ है । कवि ने जगत का जो स्वरूप बताया है, यह कोरी कल्पना नहीं है पूर्णतया सत्य है । हम सदा देखते हैं कि आज जो व्यक्ति लक्ष्मी के प्राप्त होने पर पुत्रादि के विवाह अथवा अन्य किसी शुभ संयोग के कारण फूला नहीं समाता
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