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________________ सच्चे सुख का रहस्य ७९ कि अमुक स्कूल के विद्यार्थियों ने अपने मास्टरों को गालियां दी और अमुक कॉलेजों के छात्रों ने प्रोफे सर को पीट दिया। क्या ऐसे अनुशासनहीन लड़के अपने माता-पिता का भी आदर-सम्मान कर सकते हैं ? जो छात्र अपने गुरु का मान नहीं करते वे आगे जाकर अपने माता-पिता का मान क्या रख सकते हैं । एक कवि ने कहा है जनक वचन निदरत निडर, बसत कुसंगत माहि । मूरख सो सुत अधम है, तेहिं जनमे सुख नाहिं ।। जो पुत्र कुसंगति में पड़कर पिता के वचनों का निडरतापूर्वक अनादर करते है वे मुर्ख और अधम पुत्र होते हैं, जिनके जन्म लेने से कोई सुख मातापिता को हासिल नहीं होता। इसके अलावा मान लिया जाय कि कोई पुत्र सुपुत्र है तो भी उसकी ओर से क्या माता-पिता को सुख मिलता है ? नहीं, जन्म से लेकर तो उसकी सेवा तथा सार-संभाल माता-पिता को करनी पड़ती है तथा स्वयं अनेकानेक कष्ट सहकर उसका लालन-पालन करना होता है। उसके पश्चात् कुछ बड़ा होने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई के खर्च आदि की चिन्ता में इतना परिश्रम-करना पड़ता है कि स्वयं की ओर ध्यान देने का भी अवकाश नहीं मिलता। उनके पश्चात् जरा और बड़ा होने पर शादी-विवाह की चिन्ता हो जाती है और उससे निवृत्त होने पर पौत्र-पौत्री हो गये तो उनकी मोह ममता में पड़े रहकर अपनी आत्मा के लिये कुछ भी नहीं किया जा सकता। इस प्रकार पुत्र के जन्म से लेकर ही माता-पिता को कभी शांति नसीब नहीं हो पाती । और ऐसी स्थिति में पुत्र से सुख मिलता है यह कहना भूल के अलावा और क्या कहा जा सकता है ? ____ श्लोक में छठा सुख बताया गया है-अर्थ के उपार्जन में सहायक होने वाली विद्या को प्राप्त करना । पर क्या उस विद्या या शिक्षा से इन्सान सच्चे सुख को प्राप्त कर सकता है ? नहीं, पहले तो शिक्षार्थी कई वर्षों तक अनेक विषयों की पोथियाँ रटते-रटते ही परेशान हो जाता है और पढ़-लिख लेने के बाद अगर नौकरी मिल गई तो सुबह से शाम तक कार्य-रत रहकर अपने स्वास्थ्य को खो बैठता है । तीसरी हानि उसे यह होती है कि प्राप्त हुआ धन उसे निन्यानवे के चक्कर में डाल देता है। धन पैसे से कभी किसी को संतोष , होता तो देखा नहीं जाता । सदा ही प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह सौ रुपये महीने कमाता हो या हजार रुपये, अपनी भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं के पूरे न होने का रोना रोते रहते हैं। कम पैसे पाने वाले को खाने-पहनने की कमी का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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