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आनन्द-प्रवचन भाग-४
है । यह सुख कभी स्थायी नहीं होता। अगर यह मान लिया जाय कि पत्नी की पति में प्रीति होती है तो वह भी कितने समय तक सुख पहुंचा सकती है ? केवल तभी तक तो, जब तक कि मनुष्य इस शरीर को धारण किए हुए हैं । आंख मूदते ही तो स्त्री का वियोग हो जाता है और आत्मा अन्य किसी योनि में जन्म लेने पहुंच जाती है ।
बंधुओ ! श्लोक का विवेचन करने के क्रम में कुछ गड़बड़ हो गई है अर्थात धन की प्राप्ति तथा स्त्री-सुख के मध्य कवि ने एक सुख और बताया है । वह है आरोग्यता। यानी निरोग रहना भी संसार के छः सुखों में से एक सुख हैं।
इसके विषय में आप और हम सभी जानते हैं कि सुन्दर स्वास्थ्य यद्यपि सुखदायी है और स्वस्थ रहने पर इन्सान अपने आपको पूर्ण सुखी मानता है। कहा भी जाता है ---- पहला सुख निरोगी काया ।' किन्तु यह शरीर किसी भी हालत में सदा स्वस्थ नहीं रह सकता । चाहे व्यक्ति सदा ही पौष्टिक पदार्थ खाता रहे और सभी विटामिनों की गोलियां बिगलता रहे । फिर भी न जाने किस अदृष्ट मार्ग से आकर रोग उसे घेर ही लेते हैं । और वृद्धावस्था के आ जाने पर तो वे हटाये नहीं हटते । किसी कवि ने वृद्धावस्था का सच्चा चित्र खींचा है ---
भयो संकुचित गात, दन्तहू उखर परे महि
आंखिन दीखत नाहि, बदन तें लार परत बहि ।। भई चाल बेचाल, हाल बेहाल भयो अति ।
वचन न मानत बन्धु, नारिहू तजी प्रीति-गति ।। यह कष्ट महा दिये वृद्धपन, कछु मुख सो नहिं कहि सकत ।
निज पुत्र अनादर कर कहत, यह बूढ़ो यों ही बकत ॥ तो बंधुओ, हम आरोग्यता के विषय में बात कर रहे थे कि कोई भी व्यक्ति अपने शरीर के लिए निश्चित रूप से कभी नहीं कह सकता कि उसे रोग घेरेगा ही नहीं, और वृद्धावस्था जो कि शरीर के लिए आनी अनिवार्य है, उस समय तो रोग आकर फिर टलते ही नहीं। अतः आरोग्यता को भी स्थाई सुख मानना निरा अज्ञान है।
अगला सुख आज्ञाकारी पुत्र का होना माना गया है । इस युग में तो पुत्र का आज्ञाकारी होना बड़ी ही असंभव सी बात लगती है। यह युग अनुशासन से हीन सा दिखाई देता है । आए दिन पुनते हैं, देखते हैं और पढ़ते भी हैं
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