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सच्चे सुख का रहस्य
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आजीवन कारावास में रखा । तात्पर्य यही है कि राजाओं या बादशाहों को भी सुख हासिल नहीं होता।
इसी प्रकार सेठ-सेनापति भी दुखी रहते हैं। कभी कभी तो राजा की आँख टेढ़ी होते ही उनका समस्त धन छीनकर उन्हें देश निकाला ही दे दिया जाता है, और उनका अपार धन भी उनके किसी काम नहीं आता।
श्लोक के अन्त में बताया गया है कि संसार में अगर कोई सुखी हैं तो वे साधु-जन हैं जिनके पास न धन है और न धन के लिये तृष्णा ही है।
तो बंधुओ, जैसा कि श्लोक में कहा गया है-नित्य धन का लाभ होना संसार में पहला सुख है, यह सही नहीं साबित होता । अपितु धन सदैव दुखदायी होता है । क्योंकि--
अर्थानामर्जने दुःखं, अजितानाञ्च रक्षणे ।
आये दुःखं, व्यये दुःखं,किमर्थं दुःख साधनम् ।। धन का उपार्जन करने में भी दुःख होता है और उपार्जन कर लेने के बाद उसकी रक्षा करने में भी दुःख होता है । धन के आने में भी दुख है और आकर चले जाने में तो और भी अधिक दुःख है। तब फिर अरे मानव ! तू जान बूझकर क्यों दुःख-प्राप्ति का साधन करता है ?
वस्तुतः किसी विचारक ने मनुष्य को यथार्थं और सुन्दर चेतावनी दी है कि धन के द्वारा कभी भी सूख हासिल नहीं हो सकता। अब हम श्लोक की दूसरी पंक्ति पर विचार करते हैं । जो कहती है--
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च' यानी प्रियवादिनी पत्नी का मिलना भी सुख का कारण है। किन्तु हम तो संसार में यह बात भी सही होती नहीं देखते । देखते यह हैं कि सभी सगेसम्बन्धियों के समान ही जब तक मनुष्य धन कमाता है तथा वस्त्राभूषण आदि से पत्नी को संतुष्ट रखता है तभी तक वह भी अपने पति से मधुर भाषण करती है । और जब पति भाग्य के विपरीत होने से इन भौतिक साधनों को नहीं जुटा पाता तो वह भी आँखें फेर लेती है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं
उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचो हथियार ।
तुलसी परखत रहत नित इनहि न पलटत बार ।। सर्प, घोड़ा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार इनको सदा परखते
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