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________________ ७४ आनन्द-प्रवचन भाग-४ हितोपदेश के एक श्लोक में सुख के विषय में बताया गया हैअर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या, षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ! कहा है- हे राजन् ! नित्य धन का लाभ, आरोग्यता, प्रियतमा और प्रियवादिनी स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र, तथा धन को प्राप्त करने वाली विद्या-ये संसार में छः सुख हैं । इस प्रकार संसार में छः प्रकार के सुख बताये गए हैं । किन्तु हम दीर्घदृष्टि से विचार करते हैं तो निश्चय ही महसूस होता है कि धन से सच्चे सुख की प्राप्ति कहाँ संभव है ? धन से न हम असाध्य रोगों को मिटा सकते हैं, न उससे युवावस्था को स्थिर रखकर बुढ़ापे को आने से रोक सकते हैं और न ही धन की बदौलत मौत से ही बच सकते हैं । जरा ध्यान से विचार करने की बात है कि इस संसार में धन से कौन सुखी होता है ? सत्य तो यह है 1 न वि सुही देवता देवलोए, न वि सुही पुढवीवईराया न वि सुही सेट्ठ सेणावई य एगंत सुही साहू वीयरागी ।। - अर्थात् — देवलोक में देवता सुखी नहीं हैं । यद्यपि उनके पास प्रचुर वैभव होता है, रत्नमय विमान होते हैं तथा अपूर्व सुन्दरी देवियाँ होती हैं और वे भी इच्छानुसार अपने रूप का परिवर्तन करते हुए उन्हें सुख पहुंचाने का प्रयत्न करती हैं । किन्तु देवताओं को अपने वैभव से संतोष नहीं होता और वे दूसरे देवों की समृद्धि देख-देखकर असंतुष्टि तथा ईर्ष्या की आग में जलते रहते हैं । दूसरे नंबर में पृथ्वीपति राजा आते हैं । जिनके यहाँ अगणित दास-दासियाँ, भारी सेना और धन का विपुल खजाना होता है । किन्तु सुख उन्हें भी नसीब नहीं होता, क्योंकि उन्हें अन्य राजाओं के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करने की चिन्ता रहती है । कभी-कभी तो उनके सगे-स्नेही और भाई या पुत्र भी उन्हें धोखा दे देते हैं । हिन्दुस्तान के शाहंशाह जहाँगीर के चार पुत्र थे लेकिन उन्हें बादशाह होते हुए भी कौन सा सुख हासिल हुआ ? उनके पुत्र औरंगजेब ने अपने भाइयों को तो धोखे से मरवाया ही, साथ ही उन्हें भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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