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घड़ी से, घड़ी दो घड़ी लाभ उठा लो !
७१ ___इस विषय को और अधिक सरलता से समझने के लिये यह कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति भले ही लखपती, करोड़पती या चक्रवर्ती ही क्यों न हो, अगर वह अपार वैभव के बीच में रहकर और समस्त सांसारिक सुखों को भोगता हुआ भी उनसे उदासीन रहता है, यानी उन भोगों के प्रति उसकी आसक्ति नहीं होती तो वह कर्म-बंधनों से बचा रहता है । तथा दूसरी ओर एक भिखारी अपनी फटी गुदड़ी और मुठटी भर चनों के प्रति भी घोर आसक्ति या ममत्व रखता है तो वह निबिड़ कर्मों का बन्धन कर लेता है । अतएव आसक्ति, लोलुपता एवं गृद्धता का त्याग कर देना ही आत्म-कल्याण का मार्ग है। आसक्ति का त्याग जितनी-जितनी मात्रा में होता जाएगा, उतनी-उतनी मात्रा में आत्मा विशद्ध होती जाएगी तथा अपने सच्चे और शुद्ध स्वरूप की ओर बढ़ती जाएगी। किसी कवि ने कहा है:--
अति चंचल ये भोग, जगत ह चंचल तैसो। तू क्यों भटकत मूढ़ जीव संसारी जैसो ।। आसा-फाँसी काट चित्त तू निर्मल हरे ।
साधन साधि समाधि परम निज पद के ढरे ।। पद्य में कहा है-अरे चित्त ! इस संसार के भोगोपभोग अत्यन्त चंचल है यानि कभी तो यहाँ पर राजा रंक बन जाता है और कभी रंक राजा । कभी तो मनुष्य अपनी शक्ति के गर्व में पहाड़ से भी टकरा जाने को तैयार हो जाता है और कभी रोगों के आक्रमण होने पर शैय्या से उट भी नहीं पाता। इसलिये-- हे मेरे चित्त ! तू मूढ़ के समान इस संसार के भोग-विलासों के पीछे मत दौड़, और आशाओं के बंधनों को समूल नष्ट करके समाधि भाव धारण कर तथा अपने आत्म-रूप में लीन हो जा।" ।
कितनी सुन्दर शिक्षा है यह ? वास्तव में ही इच्छाओं और आशाओं के बढ़ाने से क्या हासिल होगा ? तृष्णा के फेर में पड़कर मनुष्य भले ही अपने समक्ष धन का अम्बार लगा ले किन्तु एक दिन तो उसे सब कुछ छोड़कर यहाँ से प्रमाण करना ही पड़ेगा। जिस समय मौत सिर पर मंडराने लगेगी, उस समय व्यक्ति अमीर होगा तो उसे अधिक माया त्यागनी पड़ेगी और निर्धन होगा तो कम छोड़नी होगी । पर दोनों को जाना तो समान दशा में ही होगा।
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