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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ और जल्दी ही क्या, कभी प्राप्त हो सकेगा ही, यह भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। इसलिये बंधुओ, ऐसे जन्म जो हमें निरर्थक नहीं जाने देना है तथा इसका पूर्ण लाभ लेना है । अन्यथा जब यह समाप्त हो जायेगा तो पश्चाताप के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आएगा। जीवन की सार्थकता किसमें है ? विवेकी पुरुषों के लिये यही प्रश्न विचारणीय है कि मानव जीवन की सार्थकता किसमें है ? इसका उत्तर पाने के लिये बड़ी गम्भीरता एवं दूरदृष्टिता की आवश्यकता है । अगर हम संतों का समागम करते हैं तथा शास्त्रों का श्रवण या वाचन करते हैं तो सहज ही जान सकते हैं कि जीवन की सार्थकता आत्म-कल्याण में है । आत्म कल्याण से अभिप्राय आत्मा का अपने विशुद्ध रूप को प्राप्त करना है। पर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को तभी प्राप्त कर सकती है, जबकि इन्द्रियों के विषयों से तथा प्रमाद से बचा जाय । यह तो सम्भव नहीं है कि इन्द्रियाँ अपना कार्य छोड़ दें। आँखों के समक्ष जो वस्तु आएगी उसे आँखें देखेंगी, कानों में पड़े हुए शब्द वे सुनेंगे तथा नासिका भी गंध-श्रवण किये बिना नहीं रहेगी। इस प्रकार इन्द्रियाँ अपना कार्य अवश्य करेंगी, उन्हें अपने विषयों से हटाया नहीं जा सकता । किन्तु किया यह जा सकता है कि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुए विषयों में राग, द्वेष और आसक्ति न रहे । जो व्यक्ति ऐसा कर लेता है वह इन्द्रिय विजयी कहलाता है। कर्मों का बंधन कैसे होता है ? ___ इस प्रश्न का उत्तर हमारे आगम और महापुरुष यही देते हैं कि संसार के पदार्थों और प्राणियों में आसक्ति होना कर्म-बंध का कारण है। भौतिक पदार्थों और भौतिक सुखों के प्रति मनुष्य की आसक्ति अथवा शुद्धता जितनी अधिक होगी, उतने ही प्रगाढ़ कर्मों का उसके बन्धन होता जाएगा। बड़ी बारीकी से समझने की बात तो यह है कि कर्मों का बंध होना भावना पर अधिक निर्भर होता है। जो इन्द्रिय विजयी पुरुष होते हैं वे मधुर से मधुर मिष्ठान भी अनासक्तभाव से खाते हैं अतः उनके कर्म बंधन नहीं होते और जो अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं रखते, दूसरे शब्दों में अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखते वे रूखा-सूखा भी अगर अत्यन्त गद्धता से खाते हैं उनके कर्म प्रगाढ़ बँध जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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