SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द-प्रवचन भाग ४ हो । क्या ये सब तुम्हारी आत्मा का कुछ भला कर सकेंगे ? कुछ भी तो नहीं, उलटे उसे पतन की ओर ले जाएँगे तथा कर्मों के भार को बढ़ाएँगे। __ अतः अच्छा हो कि इस घड़ी के द्वारा ही सामायिक, प्रतिक्रमण आदि कुछ धर्म-क्रियाएँ करके घंटे दो घंटे परमार्थ का ही साधन करो। अधिक नहीं तो घड़ी दो घडी तो इसके लिये निकालो ही। ___ बंधुओ, आप जानते ही होंगे कि मानव को दो प्रकार की व्याधियाँ पीड़ित करती हैं। एक होती है शारीरिक व्याधि और दूसरी मानसिक । इन दोनों ही व्याधियों का उपचार करना आवश्यक होता है। शारीरिक व्याधियों को दूर करने के लिये तो आज कदम-कदम पर अस्पताल बने हुए हैं, जिनमें असंख्य डॉक्टर और वैद्य मरीजों की बीमारियों को मिटाने का प्रयत्न करते रहते हैं। देश में प्रतिदिन नवीन औषधियों का आविष्कार एवं निर्माण होता है, जिनके द्वारा गंभीर और सांघातिक रोग भी निर्मूल होते हुए देखे जाते हैं । __ मानव की दूसरी व्याधियाँ होती हैं मानसिक । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वषादि विकार इस श्रेणी में आते हैं। पर इनका इलाज दवा की गोलियों और इंजेक्शनों से नहीं होता। इन्हें मिटाने के लिये संत-समागम या सत्संग करना अनिवार्य होता है । संत-पुरुष ही धीरे-धीरे मनुष्य के इन रोगों को दूर कर सकते हैं। ___ यद्यपि मानव के मन में अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के संस्कार होते हैं पर उसे जिस प्रकार की संगति मिल जाती है, उसी प्रकार के विचार उभर आते हैं । जैसे चोर, डाकू जुआरी तथा व्यभिचारी लोगों की संगति होने पर हृदय के अच्छे संस्कार नहीं पनपते और बुरे पनप जाते हैं, उसी प्रकार संत महात्माओं की संगति प्राप्त होने पर कुविचार दबे रहते हैं तथा सुविचार उदित होकर आचरण में उतरते हुए जीवन को उन्नत बनाते हैं। संस्कृत के एक श्लोक में बताया गया है निधानं सर्वरत्नानां हेतुः कल्याण-संपदाम् । सर्वस्या उन्नतेमूलं महतां संग उच्यते ॥ अर्थात् – महान् पुरुषों का सत्संग समस्त उत्कृष्ट अमूल्य पदार्थों का आश्रय, कल्याण संपत्तियों का हेतु और सभी प्रकार की उन्नति का मूल कहा जाता है। किन्तु इसके विपरीत अगर मनुष्य को बुरे व्यक्तियों की संगति प्राप्त हो जाय तो उसके सुगुण भी दुर्गुण बन जाते हैं तथा वह पतन की ओर अग्रसर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy