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घड़ी से, घड़ी दो घड़ी लाभ उठा लो !
प्राप्त हो गई हो । वह आनन्दपूर्वक उदरतृप्ति करके निर्भयतापूर्वक सो गया ।
किन्तु बन्धुओ, क्या वह मुसाफिर सदा के लिये वहीं डेरा डाल लेगा ? नहीं, उसके मन में प्रतिपल यह भावना रहेगी कि मुझे प्रातःकाल होते ही अपने नगर में अपने घर पहुँचना है । यह प्याऊ मेरे लिये अस्थायी स्थान है । मैं चाहने पर भी सदा यहाँ नहीं रह सकता और इन्हीं विचारों के अनुसार वह प्रातः काल उठते ही वहाँ से अपने नगर की ओर चल देता है । वहाँ ठहरे रहने की उसकी स्वतः ही इच्छा नहीं होती, उलटे उसे लगता है कि कब मैं यह अस्थायी स्थान छोड़ें ।
ठीक इसी प्रकार यह संसार एक गहन वन है तथा जीवात्मा एक मुसाफिर । सही मार्ग भूल जाने के कारण वह अनन्तकाल तक नाना योनियों भटकता रहा है और बड़ी कठिनाई से इसे मानव - जन्म रूपी प्याऊ मिली है जहाँ यह कुछ समय चैन से रह रहा है । किन्तु क्या यह स्थान ही इसका अन्तिम लक्ष्य है ? क्या यहाँ पर यह सदा के लिये रह सकेगा ? नहीं, यह मानव जन्म रूपी स्थान इसका गंतव्य नहीं है । आत्मा का निर्दिष्ट और सही घर मोक्ष में है और आत्मा वहाँ पहुँचने के लिये ही छटपटाती है
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इसलिये प्राणी को प्रत्येक पल यहाँ से चल देने के लिये तैयार रहना चाहिये । यहाँ के वैभव - विलास प्याऊ पर मिलने वाले शीतल जल के समान हैं जिनसे भले ही थोड़ी देर के लिये सुख की प्राप्ति हो जाय पर उसे आखिर छोड़ना तो पड़ता ही है । ठीक इसी प्रकार सांसारिक सुख भी अस्थायी हैं और एक दिन छूट जाने वाले हैं अतः उनमें ममत्त्व रखना मूर्खता है ।
विवेकवान पुरुष यही विचार करता हुआ संसार की किसी भी वस्तु पर आसक्ति नहीं रखता, किसी संबंधी में मोह नहीं रखता तथा अपनी आत्मा को उन्नति की ओर अग्रसर करता चला जाता है । जैसी कि घड़ी भी सदा बढ़ते रहने की हो प्रेरणा देती है । वह भी यही कहती है- 'रुको मत, आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़े चलो ।'
अब देखिये आगे क्या कहा गया है ? --
घड़ी से घड़ी दो घड़ी लाभ ले लो,
सत्संग में तुम को बुलाती घड़ी है ।
कितनी सुन्दर बात है ? कहा है – 'अरे भोले मानव ! दिन और रात के चौबीसों घन्टे अर्थात् आठों प्रहर तुम सांसारिक भोगोपभोगों में व्यतीत करते
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