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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ है संसार सराय जहाँ हैं पथिक आय जुट जाते । लेकर टुक विश्राम राह में अपनी-अपनी जाते । जो आये थे गये सभी जो आये हैं जायेगे । अपने अपनेकर्मो का फल सभी आप पाएंगे । जिस प्रकार स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न काल में राजा बन जाता है और अपने अपार वैभव को देखकर फूला नहीं समाता किन्तु नींद खुलते ही अपनी टूटी झोंपड़ी और फटी गुदड़ी देखकर अपनी सही स्थिति का ज्ञान करता है इसी प्रकार संसारी जीव धन-वैभव पाकर स्वप्न काल के राजा की भाँति अपने आपको अनन्य सुखी मानता है किन्तु जब काल का बुलावा आ जाता है तो समस्त धन-वैभव और स्वजन-परिजन उसके सामने से विलीन हो जाते हैं तथा उसका निजी धर्म केवल 'कर्म' ही उसके सामने बचते हैं। ___ इसीलिये घड़ी कहती है—'तू इस संसार रूपी सराय में केवल एक मुसाफिर है यहाँ रहना तेरा अन्तिम लक्ष्य नहीं है। कितना भी भौतिक सुख तुझे क्यों न प्राप्त हो जाय एक दिन तो तुझे सब छोड़कर जाना ही होगा। अतः क्यों न पहले ही उत्तम करनी करके तू अपने भविष्य को संवार ले।' प्याऊ पर कब तक रुकोगे ? हम कल्पना कर सकते हैं कि एक मुसाफिर एक शहर से दूसरे शहर की ओर रवाना होता है। किन्तु मार्ग में निर्जन और गहन बन आता है, जिसमें वह मार्ग भूल जाता है । भटकते-भटकते सूर्यास्त होने को होता है और वह घबराया हुआ मुसाफिर थोड़ी दूर पर किसी झोंपड़ी में जलते हुए चिराग की मंद रोशनी देखकर उस ओर बढ़ जाता है। जिस स्थान पर वह राहगीर पहुँचता है वहाँ एक प्याऊ होती है, जिसमें से एक वृद्ध व्यक्ति मुसाफिर को आते हुए देखकर उठता है तथा अत्यंत प्रसन्न होकर उसे ठंडा पानी पिलाता है, रूखा-सूखा कुछ खाने को देता है तथा रात्रि को सोने के लिये भी इंतजाम कर देता है । ___मुसाफिर तीव्र धूप और गर्मी में सारे दिन मार्ग खोजता हुआ भटका था अतः भूख-प्यास के मारे उसका हाल बेहाल हो रहा था। दूसरे रात्रि के करीब आ जाने से उसे वन के भयानक जन्तुओं का भय भी बुरी तरह से सता रहा था। ऐसी स्थिति में बड़ी भूख और प्यास मिटाने के लिये जल व भोजन का मिलना तथा मृत्यु से बचने के लिये सुरक्षित स्थान का मिल जाना कितनी बड़ी बात है ? मुसाफिर को ऐसा महसूस हुआ मानों मरते हुए को संजीवनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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