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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ तो शाखाएँ और पत्ते स्वयं ही सूख जाते हैं । पुनः नहीं फलते । यानि काम के नाश हो जाने पर अन्य विकार स्वतः नष्ट हो जाते हैं। ___ वास्तव में, शील जीवन का अमूल्य धन है और इसके तेज से जीवन में ऐसा विलक्षण सौन्दर्य और अनेकानेक सद्गुणों की सौरभ भर जाती है कि वह देवताओं के लिये भी ईर्ष्या का कारण बन जाता है । इस महान व्रत की महत्ता शब्दों से नहीं बताई जा सकती। भगवान ने स्वयं सूयगडागं सूत्र में फरमाया है ___ "तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं ॥" ब्रह्मचर्य सभी तपस्याओं में उत्तम तपस्या है। महिमामय ज्ञान ज्ञान से हमारा तात्पर्य यहाँ लौकिक ज्ञान से नहीं है, जिसमें हिन्दी, गणित, व्याकरण, खगोल और भूगोल आदि नाना विषयों को पढ़ाया जाता है। इन सब का ज्ञान यद्यपि अनावश्यक नहीं है क्योंकि लौकिक सफलता के लिए ये सहायक हैं । किन्तु आत्मा के उद्धार का जहाँ प्रश्न आता है, वहाँ ये सब किसी काम नहीं आते। इसलिये लौकिक ज्ञान के साथ ही मनुष्य को लोकोत्तर ज्ञान हासिल करना चाहिये । इसके द्वारा वह जीव, अजीवादि तत्वों के विषय में तथा स्वर्ग, नरक और मोक्ष के विषय में जान सकता है तथा यह भी जान सकता है कि मोक्ष प्राप्ति के साधन क्या हैं और उन्हें किस प्रकार आचरण में उतारा जा सकता है ? श्री उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है नाणं च दंसणं चैव, चरित्तं च तवो तहा । एय मग्गमणुपत्ता, जीवा गच्छन्ति सुग्गई ॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इन चारों की अनुक्रम से आराधना करके जीव मोक्ष रूपी सुगति को प्राप्त कर सकता है। इस गाथा से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वप्रथम सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति होने पर ही जीवादि तत्वों की जानकारी होगी, दुःख के कारणों को समझा जा सकेगा और जिन महान गुणों को ग्रहण करना चाहिये उन्हें ग्रहण किया जा सकेगा। और सम्यकज्ञान तथा सम्यकदर्शन से चारित्र तथा तप जीवन में उतरेंगे जो मोक्ष को प्रदान करने वाले हैं। तो बन्धुओ, आज के विषय को आप भली-भांति समझ गये होंगे, जिसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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