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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ कुछ व्यक्तियों का कथन है कि तप करना निरी मूर्खता है । क्योंकि पाप तो आत्मा करती है और तप करने वाले शरीर को दुःख देते हैं ? शरीर को भूखा-प्यासा रखने से आत्मा को क्या लाभ होता है ? लाभ तो तब हो सकता है जबकि केवल आत्मा को ही तपाया जाय। __ ऐसा विचार करने वाले अज्ञानी कहलाते हैं । वे भूल जाते हैं कि जिस प्रकार मक्खन में से छाछ अलग करके घी निकालने के लिये उसे बर्तन में डालकर अग्नि पर चढ़ाना पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा में से कर्मों को अलग करके उसकी शुद्धता प्राप्त करने के लिये भी आत्मा के आश्रयभूत शरीर को तपाना पड़ता है। ____ जो व्यक्ति आयंबिल, उपवास, नवकारसी, पोरसी आदि तप करते हैं उनका शरीर भले ही कृश हो, किन्तु आत्मा अत्यन्त दृढ़, निर्मल और सशक्त बनती है । और शरीर के कृश होने पर भी नुकसान कुछ नहीं होता क्योंकि इस शरीर को तो वैसे भी एक दिन नष्ट होना ही है। इसलिये क्यों न तप करके आत्मा को लाभ पहुंचाया जाय ? कहा भी है: ___ अध्रुवे हि शरीरे यो, न करोति तपोऽर्जनम् । सपश्चात्तप्यते मूढ़ो, मतो गत्वात्मनो गतिम् ॥ यह शरीर तो क्षण भंगुर है; इसमें रहते हुए जो जीव तप उपार्जन नहीं करता, वह मूर्ख मरने के पश्चात् जब उसे अपने कुकर्मों का फल मिलता है। तब बहुत पश्चात्ताप करता है। ___इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु को आंतरिक एवं बाह्य तप के द्वारा अपने कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिये । दान की महिमा भर्तृहरि के श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने जीवन में दान के महान् गुण को नहीं अपनाता वह भी पशु के समान ही अपना जीवन निरर्थक "बिताता है। दान के विषय में संत तुकाराम जी कहते हैं ने दा तरी हे हो, न का देऊ अन्न, फुकाचे जीवन, तरी पाजा। नका घालु दूध, तुपामध्ये सार, ताकाचे उपकार, तरी करा ॥ अर्थात्-तुम्हारे पास अगर अन्नदान करने की शक्ति नहीं है, तुम किसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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