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निर्गुणी को क्या उपमा दी जाय ?
५५ इसीलिये जैसा समय देखता हूँ वैसा कर लेता हूँ। अतः गुण-हीन के लिये . मेरी उपमा मैं कदापि नहीं देने दूंगा।'
तो बंधुओ, अब क्या किया जाय ? एक कुत्ता भी तो अपने आपको गुणहीन कहलवाना पसंद नहीं करता। फिर क्या मनुष्य को गुणहीन रहकर कुत्ते से भी बदतर कहलवाना चाहिये ? नहीं, उसे अपने दुर्लभ मानवजीवन का पूर्ण लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिये। ___अभी हमने कवियों की बातें सुनी । यद्यपि हरिण, गाय और श्वान बोलते नहीं हैं, किन्तु इन रूपकों के द्वारा उनमें रहे हुए गुण कवि ने अपनी भाषा में दिये हैं और यह इसलिये कि मनुष्य अपने आपको गुणवान् बनाए । अपनी काव्य-कला के द्वारा कवि ने अभी बताए हुए तीनों पशुओं के माध्यम से मानव को सीख देकर अपना कर्तव्य पूरा किया है। क्योंकि कहा भी जाता है
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिये ।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिये । जिस प्रकार माता-पिता अपने बालक को खेल के माध्यम से भी अनेक अच्छी बातें सिखा देते हैं, इसी प्रकार कवि भी अपनी कला की सुन्दरता से अज्ञानी पुरुषों का मनोरंजन करते हुए भी उन्हें अपनी आत्मा को ऊँचा उठाने वाली शिक्षा प्रदान करते हैं। ___यही हमारे आज के विषय के माध्यम से बताया गया है कि अनन्त काल से मनुष्य नाना योनियों में भ्रमण करता रहा है और असंख्य पुण्यों के परिणामस्वरूप जबकि उसे यह दुर्लभ मानव पर्याय मिली है तो वह पशु के समान खाने और सोने में ही उसे व्यतीत न करके ज्ञान सहित तप, दान और शील रूप धर्म का आचरण करते हुए सार्थक बनाए ।
तप का महत्त्व हमारे उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है--
तवेणं भंते ! जीवे किं जणयई ?
तवेणं वोदाणं जणयई। प्रश्न है--- 'हे भगवान ! तप करने से क्या लाभ होता है ?' उत्तर है, तप करने से ही आत्मा बंधे हुए कर्मों का क्षय करता है।
हमारी आत्मा एक शुद्ध और प्रकाशमय तत्त्व है किन्तु उस पर अनादिकाल से कर्मों की मलिनता चढ़ी हुई है। उस मैल को तप के द्वारा ही भस्म किया जा सकता है।
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