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________________ ५४ आनन्द-प्रवचन भाग - ४ भोजन बनाते हैं तथा हजारों रुपयें घी, दूध, मिठाई आदि में खर्च करते हैं पर मैं रूखी-सूखी कौर - दो कौर की रोटी खाकर भी अपने कार्य में तत्पर रहता हूँ तथा बासी या जूठा जो भी मिल जाता है उसी में परम संतोष का अनुभव करता हूँ । जैसा कि कबीर ने कहा है चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह | जिनको कछू न चाहिये, सोई साहसाह ॥ तो मैं ऐसा ही शाहंशाह हूँ जो अन्य किसी भी सांसारिक झंझट में नहीं पड़ता और जो मिले वही खाकर अपने स्वामी की सुरक्षा में रत रहता हूँ । इसके अलावा मुझमें और भी एक बड़ा भारी गुण है । वह यही कि मैं आलस्य तनिक भी नहीं करता । पलक झपकने में तो फिर भी देर लगती है, किन्तु मुझे अपनी ड्यूटी पर तत्पर होते देर नहीं लगती । इसके अलावा उदर पूर्ति के लिये में चन्द समय में ही एक घर से दूसरे, तीसरे या चौथे, चाहे जितने घर घूम आता हूँ । मुझ में उद्यम की तनिक भी कमी नहीं है । निर्गुणी पुरुष तो आलसी होता है पर मैं सदा चुस्त जरूर है कि मैं समय सूचक भी हूँ। अवसर देखकर और हुए ही काम करता हूँ। अगर मुझ से ताकतवर कोई मेरे सामने आ जाये तो मैं झुक भी जाता हूँ । इस प्रकार मुझ में नम्रता भी है ।" रहता हूँ पर इतना अपनी पहुँच देखते वस्तुतः नम्रता एक बड़ा विशिष्ट गुण है । एक घटना हमारी आँखों देखी है । दो श्रावक थे अपने ही । उनमें से एक अमीर और दूसरा गरीब था । आवश्यकता के कारण निर्धन श्रावक ने दूसरे से कुछ रुपया उधार लिया था । किन्तु किसी समय तकाजा करते हुए अमीर श्रावक ने अपने बड़प्पन के गर्व में आकर कर्जदार को कुछ कटु शब्द कह दिये और सुनने वाले ने कह दिया – “ठीक है मैं अब तुम्हें पैसा दूँगा ही नहीं, अपने घर पर 'तुलसी पत्र ' रख दूँगा । उसने यही किया भी । मैंने उसे अवसर पाकर समझाया भी कि 'भाई ! जिसका लिया है, उसका वापिस लौटाना भी चाहिये ।' किन्तु वह नहीं माना । कहने लगा'उसने मुझे ऐसे शब्द कहे ही क्यों ? मैंने तो अपने घर 'तुलसी पत्र' रख ही दिया है ।' परिणाम यह हुआ कि देखते ही देखते वह कर्जदार निर्धन तो था ही, पूरी तरह बरबाद भी हो गया । यह सब नम्रता के न होने का परिणाम था और गुणहीनता की निशानी थी । तो श्वान कह रहा है - 'मुझ में नम्रता का भी बड़ा भारी गुण है । 1 Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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