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निर्गुणी को क्या उपमा दी जाय ?
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तो पूज्यपाद कविकुलभूषण श्री तिलोक ऋषि जी म० की लेखनी के द्वारा श्वान बोला - " मेरे लिए हरगिज़ निर्गुणी की उपमा नहीं दी जा सकती । क्योंकि मैं अपने स्वामी का अनन्य भक्त बनकर रहता । एक बार जो मुझे अपना लेता है, प्राण देकर भी उसकी रक्षा रात-दिन करता हूं । अपने मालिक के प्रति मेरी भक्ति भगवान के भक्त से कदापि कम नहीं है ।"
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"मैं जानता हूं संसार से भगवान के अनेकानेक भक्त हुए हैं । मीराबाई ने भक्ति के बल पर जहर का प्याला हंसते-हंसते पी लिया था, सेठ सुदर्शन भक्ति के बल पर ही हत्यारे अर्जुनमाली के समक्ष बेधड़क चले गये और सूली पर ही निर्भय होकर चढ़ गये थे । हनुमान जी मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्रजी के अनन्य भक्त और सेवक थे तथा इसी कारण आज हमें रामचन्द्रजी के मंदिरों की अपेक्षा हनुमान जी के मंदिर अधिक दिखाई देते हैं । इसका कारण यही है कि वे बफादार सेवक थे । और सेवक निम्न श्रेणी का होने पर अधिक महत्त्व रखता है ।
मनुष्य के चरण शरीर में सबसे नीचे होते हैं किंतु संपूर्ण शरीर का बोझ वे ही उठाते हैं तथा पत्थर कांटे या अन्य नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों से भरे हुए मार्ग पर वे ही सम्पूर्ण शरीर को सुरक्षित ले जाते हैं । कहने का अर्थ यह है कि चरण पूरे शरीर की दिलोजान से सेवा करते हैं अतः लोग प्रणाम करते समय अपना मस्तक अपने से बड़े व्यक्तियों के चरणों पर झुकाते हैं । यद्यपि शरीर में मस्तक सबसे ऊपर होता है । किन्तु वह गर्व से तना रहता है अतः कोई भी मस्तक को प्रणाम नहीं करता । वह क्यों ? इसीलिए कि शरीर की सेवा चरण करते हैं । अनेक कष्ट सहकर भी वे अपने कार्य से कभी पीछे नहीं हटते । तुलसीदास जी का कथन भी है—
" सब तें सेवक-धर्म कठोरा ।"
तो श्वान कह रहा है कि मैं तो दिन-रात अपने स्वामी की सेवा करता हूँ क्या इससे बड़ा और उत्तम गुण संसार में और भी होता है ? फिर मुझे निर्गुणी की उपमा क्यों ?
आगे भी वह कह रहा है -- मैं अपने मालिक की रक्षा के लिए इतना तत्पर रहता हूं कि निद्रा भी अत्यल्प लेता हूं और वह भी ऐसी कि रंचमात्र आहट पाते ही जागरूक होकर चोर-डाकृ या अन्य किसी भी अजनबी को पुनः घर से निकाले बिना नहीं छोड़ता चाहे मेरी कोई जान ही क्यों न ले ले ।
दूसरे, आप लोग तो अपनी पेट पूर्ति के लिये नाना प्रकार के स्वादिष्ट
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