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आनन्द-प्रवचन भाग ४
इसी प्रकार अनेक राजा अपने दरबार में रहने वाले विद्वानों को तथा कवियों को नाना प्रकार से पुरस्कृत किया करते थे । राजा जयसिंह कवि बिहारी को उनके एक-एक पद्य पर एक-एक मोहर पुरस्कार के रूप में दिया करते थे ।
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भर्तृहरि ने भी राजा की राजनीति पर एक श्लोक में लिखा है:सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिला दयालुरपि चार्थपरा वदान्या । नित्यव्यया प्रचुर नित्य धनागमा च वेश्याङ्गनेव
नृपनीतिरनेकरूपा ॥
राजा की नीति वेश्या के समान अनेक प्रकार से व्यवहार में लाई जाती है । कहीं झूठी, कहीं सत्य, कहीं कठोर और प्रिय भाषिणी होती है, कहीं हिंसक और कहीं दयालु होती है; कहीं कृपण और कहीं उदार होती है । कहीं अधिक द्रव्य व्यय करने वाली और कहीं बहुत संचय करने वाली होती है ।
तो मैं आपको बता यह रहा था कि राजा के द्वारा सम्मान प्राप्त होना भी अमृत-प्राप्ति के समान है जो कि बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है ।
अब आता है चौथे प्रकार का अमृत । वह है प्रिय-दर्शन यानी लम्बे समय के वियोग के पश्चात् पिता, पुत्र, भाई अथवा पत्नी, किसी का भी मिलन होना ।
आत्मीयों के वियोग में घंटे महीनों के और दिन वर्षों के समान व्यतीत होते हैं । कबीर ने कहा है
हिरदे भीतर दव बरें, धुआं न परगट होय । जाके लागी सो लखे, की जिन लागी होय ॥
परदेश में या देश में भी दूर रहने वाले आत्मीयों के लिये मन जितना दुखी होता है, उस दुख का अनुभव वही कर सकता है, जिसने वियोग का अनुभव किया है या जो कर रहा है । और ऐसे वियोग के पश्चात् प्रियजनों का मिलन अत्यन्त सुखद और अमृत के समान ही अमूल्य महसूस होता है ।
कहने का अभिप्राय यही है कि इस संसार में अमृत चार प्रकार के माने गए हैं और उनमें से एक दुग्ध होता है जो कि गाय के द्वारा प्राप्त किया जाता है।
इसीलिये गाय कह रही है – “मुझे निर्गुण मत कहो ! क्योंकि मुझमें अनेक गुण है, जिसमें प्रथम यह गुण है कि मैं घास-फूस खाकर भी दूध रूपी अमृत प्रदान करती हूँ, जिससे दही, मक्खन और घी प्राप्त होता है तथा इन
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