SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ आनन्द-प्रवचन भाग-४ बंधुओ, आप और हम सभी जानते हैं कि गाय अत्यन्त सरल और सीधी होती है । वह न कभी किसी का बुरा सोचती है और नहीं कभी किसी को कटु वचन कहती है । किन्तु निर्गुणी कहलवाना तो उसे भी प्रिय नहीं लगा । वह कहने लगी – “भाइयो ! मेरे लिये निर्गुणी. की उपमा तो नहीं लगाई जा सकतीं । अर्थात् में निर्गुण व्यक्ति के समकक्ष नहीं हो सकती । मुझ में कई गुण हैं जो निर्गुणी में नहीं पाये जाते ।" सारा जगत जानता है कि मैं केवल घास-फूस खाकर अपना गुजारा करती हूँ । यद्यपि दुनियाँ के लोग बड़े स्वार्थी हैं । वे जब तक गाय दूध देती है, तब तक तो उसे थोड़ा बहुत दाना देते भी हैं किन्तु ज्यों ही वह दूध देना बन्द कर देती है, उसके सामने बैलों और घोड़ों आदि का बचा खुचा गंदा घास सुखासुखू कर डालने लगते हैं । फिर भी गाय गिला नहीं करती और अपने भविष्य के दुःख का विचार किये बिना ही जब तक वह दूध दे सकती है देती रहती है । तो गाय कहती है— मैं केवल घास खाकर ही पेट भरती हूँ फिर भी दूध जो शरीर के लिये अमृत का काम करता है, वह लोगों को प्रदान करती हूँ । संस्कृत साहित्य में अमृत चार प्रकार का माना गया है - अमृतम् शिशिरेवह्निः, अमृतम् अमृतम् राजसम्मानम्, अमृतम् प्रथम प्रकार का अमृत है— सर्दी में आग का समीप होना । जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है तब अगर अग्नि का इन्तजाम न हो तो शरीर मानों जमने लगता है । हम आये दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि दिल्ली आदि बड़े-बड़े शहरों में अनेक गरीब और फुटपाथ पर रहने वाले व्यक्ति सर्दी से ठिठुर-ठिठुर कर मर गये । तो पहला अमृत शीत में वह्नि हुआ । क्षीरभोजनम् । प्रियदर्शनम् ॥ दूसरा अमृत भोजन के साथ दुग्ध का होना है। दूध के द्वारा ही आप खीर, श्री खंड तथा मावे की नाना प्रकार की मिठाइयाँ बनाते हैं तथा उसे जमाकर दही और दही से मक्खन निकालते हैं। घर में केवल दूध हो तो आप अपने मेहमानों को भाँति-भाँति की चीजें बनाकर खिला सकते हैं तथा उनका पूर्ण सत्कार कर सकते हैं । तीसरा अमृत बताया गया है— राज सम्मान । प्राचीन काल में राजाओं का राज्य होता था । और राजाओं के विषय में प्रसिद्ध ही था कि वे अगर रुष्ट हो जाते तो व्यक्ति को नेस्तनाबूद कर देते, और अगर तुष्ट हो जाते तो उसे मालामाल करके छोड़ते थे । राजा भोज के दरबार में एक धनपाल नामक बड़े विद्वान् पंडित थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy